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अंगपण्णति नुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम यह चौबीस अधिकार हैं।
अव्वोगाढ प्रकृति के भुजगारबन्ध और प्रकृति स्थानबन्ध भेदों का कथन है। इस प्रकार अनेक प्रकार के कर्मों के भेद-प्रभेदों का कथन प्रकृतिबन्ध है।
कर्म बन्ध के बाद जब तक कर्म आत्मप्रदेशों से पृथक् नहीं होते उसको स्थितिबन्ध कहते हैं।
कर्मों में फलदान शक्ति को अनुभाग बन्ध कहते हैं। और कर्मवर्गणाओं के पुज को प्रदेशबन्ध कहते हैं।
क्रोध, मान, माया, लोभादि विकार भावों को प्राप्त आत्मा बन्धक है। और उन भावों से आगत पुद्गल वर्गणाएँ बन्धनीय हैं।
आग्राणीय पूर्व की पंचम च्यनलब्धि के बीस प्राभत में से चतुर्थ महाकर्म प्रकृति पाहुड के चौबीस अनुयोग द्वार में से कृति और वेदना का वेदना खण्ड में, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन के बन्ध और बन्धनीय का वर्गणा खण्ड में और बन्ध विधान नामक अनुयोग द्वार का खुद्दा बन्ध में विस्तार से वर्णन किया है। निबन्ध, प्रक्रम, उपक्रम आदि शेष अठारह अनुयोग की प्ररूपणा सत्कर्म में की गई है। इन सबका विशेष वर्णन षटखण्डागम में अवलोकनीय है। अर्थात् धवला में वर्गणाखण्ड की समाप्ति तथा उपयुक्त भूतबलि कृत महाबन्ध की सूचना के पश्चात् निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, वीर्य, ह्रस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्म, निधत्त, अनिधत्त, सनिकाचित, अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और अल्पबहुत्व इन अट्ठारह अनुयोग द्वारों का कथन किया गया है वहाँ से देखना चाहिये ।
अण्णेसि वत्थूणं पाहुडयस्सावणुयोगयाणं च । णामाणं उवएसो कालविसेसेण गट्ठो हु ॥४८॥
अन्येषां वस्तुनां प्राभूतस्यानुयोगानां च ।
नाम्नामुपदेशः कालविशेषेण नष्टो हि॥ पयाणि ९६०००००। अग्गायणीय पुव्वं गदं–अग्रायणीयपूर्व गतं । अन्य वस्तुओं के प्राभृत और अनुयोगों के नाम का उपदेश काल विशेष