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द्वितीय अधिकार
८१ स्थित जिन पराजित आदि जो कर्म ग्रन्थ हैं उनमें उपयुक्त भाव है वह आगमभाव प्रकृति है।
अपने-अपने नाम वाली प्रकृतियों में युक्त आत्मा नोआगमभाव प्रकृति है इन सबका विस्तार वर्गणा खण्ड में किया है वहाँ से जानना चाहिये। इन प्रकृति के भेदों का कथन करने वाला प्रकृति अनुयोग द्वार है ।
बन्धन अनुयोग द्वार में बंध, बन्धनीय, बन्धक और बन्ध विधान इन चार प्रकार के बन्धन का कथन है।
किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने को बन्ध कहते हैं। जैसे गाय आदि को बाँधने वाली रस्सी आदि । पौद्गलिक कर्मों का सम्बन्ध भी आत्मा को अपने इष्ट स्थान मोक्ष में नहीं जाने देता है, संसार में रोक कर रखता है। अतः बन्ध कहलाता है। वा कर्मप्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाही हो जाना बन्ध है। यहाँ कर्म का प्रकरण है अतः जिससे कर्म बँधे वह कर्मों का बँधना बन्ध है। कषाय सहित जीव कर्म के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है वह बन्ध है।
द्रव्य बन्ध और भाव बन्ध की अपेक्षा बन्ध दो प्रकार का है। जिन मिथ्यात्व आदि भावों से कर्म बँधते हैं वे भाव, भावबन्ध हैं और जो पुद्गल वर्गणाएँ आत्मप्रदेशों पर एक क्षेत्रावगाही होती हैं वे द्रव्यबन्ध हैं।
बन्ध विधान चार प्रकार का है प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।
प्रकृति का अर्थ स्वभाव है जैसे नीम का स्वभाव कटु। वैसे ही कर्मों का स्वभाव प्रकृति बन्ध है, जैसे ज्ञानावरणी का स्वभाव ज्ञान का आवरण करना आदि।
प्रकृति बन्ध दो प्रकार का है मूल प्रकृतिबन्ध, उत्तर प्रकृतिबन्ध । मूलप्रकृति बन्ध आठ प्रकार का है और उत्तरप्रकृति बन्ध एक सौ अड़तालीस प्रकार है। जिसका विशेष वर्णन कर्मप्रवाद में किया है।
उत्तरप्रकृति बन्ध के दो भेद हैं—एकैकोत्तर प्रकृति बन्ध और अव्वोगाढ प्रकृति बन्ध ।
एकैकोत्तर प्रकृति बन्धके, समुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नो सर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्ध स्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्धसन्निकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणा