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मुनितोषणी टीका
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(९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति अरति (१७) मायामोसो (१८) मिश्रयादर्शनशल्य ये अट्ठारह पाप सेव्या होय, सेवाया होय, सेवता प्रत्ये भलो जाण्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुकडं ।
पांच मूलगुण महाव्रत के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय संम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कडं । इस उत्तरगुण पचक्खाण के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तेतीस आशातना में से गुरु की बडों की कोई भी आशातना हुई हो तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुकडं ।
सूचना- इसके पीछे 'इच्छामि ठामि काउसग्गं' का पाठ बोलना, इस प्रकार ये सभी पाठ मौन रहकर प्रथम अध्ययन (आवश्यक) के ध्यान में बोलने का है, एवं तीसरा अध्ययन (आवश्यक) के बाद भ्रमणसूत्र के पहले चौथे अध्ययन के आदि में खडे होकर स्पष्ट उच्चारणपूर्वक बोला जाता है । ( इसी प्रकार प्रथम आवश्यक के ध्यान में और तीसरे आवश्यक के बाद चौथे आवश्यक के आदि में जो निन्यानवें अतिचार गृहस्थ बोलते हैं उन्हें आवश्यकसूत्र के अन्त के परिशिष्ट में देखें)
इति प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण.