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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २११ औदारिकादिशरीरसंख्यानिरूपणम् - दौदारिकशरीरावयवत्वात् अवयवे समुदायोपचारात् प्रत्येकमवयवमौदारिकशरीरेत्युच्यते । अवयवे समुदायोपचारस्तु एकदेशदाहेऽपि ग्रामो दग्धा पटो दग्ध इत्यादिवदुन्नेयः । एवं चैकैकं जीवविषमुक्तमौदारिकशरीरमनन्तभेदभिन्नम् । तेषु च भेदेषु प्रत्येकं प्रस्तुतशरीरावयवतया प्रस्तुतशरीरत्वेनोपर्यते । एतेषां च भेदानां प्रकृतशरीरपरिणामस्यागे अन्येषां तत्परिणामवंतामुत्पत्तिसंभवाद् यथोक्ताः नन्तसंख्यकान्यौदारिकशरीराणि न लोके कदाचिद् व्यवच्छिद्यन्ते इति। तदेवमा धत औदारिकशरीरसंख्या मोक्ता। विभागतस्त्वग्रे क्रमप्राप्ता वक्ष्यते इति ॥स. २११॥ णाम को छोडकर परिणामान्तर को नहीं पा लेते हैं, तब तक औदारिक शारीराचय होने के कारण वे औदारिक शरीर ही कहे जाते है। यद्यणि वे औदारिक शरीररूप नहीं है-उसके खंडरूप हैं, फिर, मी.अ. यव में अवयवी के उपचार से प्रत्येक अवयव औदारिक शरीररूप से मानलिये जाते हैं। अवयव में समुदायरूप अवयवी का उपचार ग्राम के एक देश के जल जाने पर जैसे 'ग्राम जलगया' पट के एक देश जल जाने पर जैसे 'पट, जलगया' होता है, वैसे ही यहां होने में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार एक एक जीव के द्वारा विप्रमुक्त औदारिक शरीर अनंत भेदवाला है इन भेदों में प्रत्येक भेद औदारिक शरीर का अवयव कहलाता है । इन अवयवों में प्रस्तुत औदारिक शरीर का उपचार कर लिया जाता है । जब ये भेद प्रकृतशरीररूप परिणाम का परित्याग कर देते हैं, तब ऐसा नहीं होता है कि-'फिर औदारिक शरीर का सर्वथा अभाव ही-व्यवच्छेद ही हो जाये क्योंकि उस.समय अन्यों में शवयव पांथा ते मोहानि शरी वामां आवे छैन ते भौहार રિકશરીર રૂપ નથી, તેના અંડરૂપ છે, છતાં એ અવયંત્રમાં અવવી ઉદર ચાથી તે પ્રત્યેક અવેચવ ઔદરિjશરીર રૂપથી માનવામાં આવે છે અને ચિમાં સદાય રૂપ અવંથવા ઉપચારગામ એકદેશને અગ્નિમાં “ભરમાં થઇ ગયા પછી “ગામ ભસ્મ થઈ ગયું અને એક ભગ- બળી જાય ત્યારે २म 4 जी आयु छ' भारी वामां भाव छ, तेभर ही पy
Wonal. धनश्री. माअमाथे .,43विभुत मोही. રિક. શરીરને અવયવ. કહેવામાં આવે છે. આ અવયામાં પ્રસ્તુત ઔદારિક શરીરને ઉપચાર કરી લેવામાં આવે છે. જ્યારે આ ભેદે મકૃ. શારીરુ રૂપ પરિણામ ત્યજી દે છે, ત્યારે. આમ થતું નથી. કે દફરી. દ્વારિક શરીરને સર્વથા અભાવ જ-વ્યવછેર જ થઈ જાય.
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