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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरसनिरूपणम्
निर्विकारम् - स्वभावेन=प्रकृत्या निर्विकार = विभूषाभ्रूक्षेपादिविकाररहितम्, न तु मायास्थानतो निर्विकारम्, तथा-उपशान्तप्रशान्तसोमदृष्टिकम् - उपशान्ता - रूपालो कनाद्यौत्सुक्यत्यागात्, प्रशान्ता क्रोधादिदोषपरिहारात्, अत एव = सोमा = भद्रा दृष्टिर्यत्र तत्तथाभूतम्, अतएव पीवरश्रीकम् - पीवरा = सान्द्रा श्री : - शोभा यस्य तत्तथाविधं मुनेः मुखकमलं 'ही' इत्याश्चर्ये, यथा शोभते, तथा पश्य । एवंविधं प्रशान्तं मुनिं दर्शयन् कश्चित् कंचित् पूर्वोक्तां गाथां कथयतीत्यवतरणिका वोध्या ।: सम्प्रति नवकाव्यरसानुपसंहर्त्तुमाह- 'एए नव' इत्यादि । द्वात्रिंशदोषविधिसमुकारतास्वरूप, ऐसा (जो) जो (पसंतभावेणं ) प्रशान्त भाव (सो) वह ( पसंतोति रसो णायच्चो) प्रशान्त ऐसा रख जानना चाहिये । यह प्रशांत रस जिस प्रकार से जाना जाता है, सूत्रकार ( पसंती रसो जहा) इन पदों द्वारा उसे कहते हैं
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जैसे - (सम्भावनिविशगारं ) मायाचारी से नहीं किन्तु स्वभाव से ही निर्विकार - विभूषा, भ्रूक्षेप आदि विकार से रहित ( उबसंत पसंतसोमदिट्ठीयं ) रूपादिक विषयों के अवलोकन की उत्सुकताके परित्याग से उपशांत बनी हुई एवं क्रोधादिक दोषों के परिहार से प्रशान्त हुई ऐसी भद्रदृष्टि से युक्त (मुणिणो मुहकमलं) मुनि का मुख कमल ( ही ) कैसे आश्चर्य की बात है जो (पीवर सिरियं) परिपुष्ट शोभा वाला होकर (सोहर) शोभित हो रहा है । यह उक्ति प्रशान्त मुनि को दिखलाने वाले किसी एक मनुष्य की है, जो इस गाथा द्वारा प्रकट की गई है । यही इस गोथा की अवतरणिका है । (एए नव कव्वरसा बत्तीस
(पसंतभावेणं) प्रशान्तभाव (खो) ते ( पसंतोत्ति रखो णायव्वो) 'प्रशान्त ? રસ જાણવે જોઈએ આ પ્રશાંત રસ જે રીતે જાણવામાં આવે છે, સૂત્રકાર ( पसंतो रखो जहा ) या पहा वडे स्पष्ट ४२
भ - (सब्भाव निव्विगार) भायायरशुथी नहीं पशु स्वालावि रीते निर्विकार- विभूषा, अक्षेप वगेरे विरोधी रडित, ( उवसंतपसंत सोमविट्ठीय) રૂપ. વગેરે વિષયેાના દર્શનની ઉત્સુકતાના પરિત્યાગથી ઉપશાંત બનેલી તેમજ ક્રોધ વગેરે ઢાના પરિહારથી પ્રશાન્ત થયેલી એવી ભદ્ર દૃષ્ટિથી યુક્ત ( मुणिणो मुहकमलं) भुनिनु, भुख भ्रमण (ही) आश्चर्य साथै डेवु पडे छे है. (पीवर सरी) परिपुष्ट शोलासयन्न थर्धने (सोहइ ) सुशोलितं थर्ध र छे પ્રશાન્ત મુનિને ઉદ્દેશીને કાઈ એક માણસે આ જાતના વિચારો વ્યકત કરેલાં છે. જે આ ગાથા વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. એજ આ ગાથાની અવતरशि४ छे. (एए नव कव्वरसा बत्तीखदोसविद्दिसमुप्पण्णा गाहाहि मुणियव्वा )
अं० २