________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा अर्थात् -उसके बाद गुरु नवीन जिनप्रतिमा के सामने दो मध्यमांगुलियां खड़ी करके क्रूर दृष्टि से तर्जनी मुद्रा दिखायें और बायें हाथ में जल लेके रौद्र दृष्टि करके प्रतिमा पर छिड़कें। किन्हीं आचार्यों के मत से बिम्ब पर जल छिड़कने का कार्य स्नात्रकार करते हैं। वर्धमानसूरि के 'केषाश्चिन्मते' इस वचन से ज्ञात होता है कि उनके समय में अधिकांश आचार्यों ने सचित जलादि-स्पर्श के कार्य छोड़ दिये थे और सचित्त जल पुष्पादि सम्बन्धी कार्य स्नात्रकार करते थे। इस क्रान्ति के प्रवर्तक कौन ? यहां यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि प्रतिष्ठा-विधि में इस क्रांति के आद्यस्रष्टा कौन होंगे? इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले हमको बारहवीं तेरहवीं शती की प्रतिष्ठाविषयक मान्यता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा। बारहवीं शती के आचार्य श्री चन्द्रप्रभसूरि ने पौर्णमिक मत प्रवर्तन के साथ ही प्रतिष्ठा द्रव्यस्तव होने से साधु के लिए कर्त्तव्य नहीं' ऐसी उद्घोषणा की। उसके बाद तेरहवीं शती में आगमिक आचार्य श्री तिलकसूरि ने नव्य प्रतिष्ठाकल्प की रचना करके प्रतिष्ठा-विधि के सभी कर्त्तव्य श्रावक-विधेय ठहरा के चन्द्रप्रभसूरि की मान्यता को व्यवस्थित किया। इस कृति से भी हम चन्द्रप्रभ और श्री तिलक को प्रतिष्ठा-विधि के क्रान्तिकारक कह नहीं सकते, किन्तु इन दोनों आचार्यों को हम 'प्रतिष्ठा-विधि के उच्छेदक' कहना पसंद करेंगे। क्योंकि आवश्यक संशोधन के बदले इन्होंने प्रतिष्ठा के साथ का साधु का सम्बन्ध ही उच्छिन्न कर डाला है। क्रान्तिकारक तपागच्छ के आचार्य जगच्चन्द्रसूरि : ___ उपाध्याय श्री सकलचन्द्रजी ने अपने प्रतिष्ठाकल्प में श्री जगच्चन्द्रसूरि कृत 'प्रतिष्ठा-कल्प' का उल्लेख किया है। हमने जगच्चन्द्रसूरि का प्रतिष्ठा कल्प देखा नहीं है, फिर भी सकलचन्द्रोपाध्याय के उल्लेख का कुछ अर्थ तो होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है कि त्यागी आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरिजी ने प्रचलित प्रतिष्ठाविधियों में से आवश्यक संशोधन करके तैयार किया हुआ संदर्भ अपने शिष्यों के लिए रखा होगा। आगे जाकर तपागच्छ के सुविहित श्रमण उसका उपयोग करते होंगे और वही जगच्चन्द्रसूरि के प्रतिष्ठाकल्प के नाम से प्रसिद्ध हआ होगा। उसी संशोधित संदर्भ को विशेष व्यवस्थित करके आचार्य श्री गुणरत्नसूरिजी तथा श्री विशालराज शिष्य ने प्रतिष्ठा-कल्प के नाम से प्रसिद्ध किया ज्ञात होता है। -29