________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा परिशिष्ट-3 क्रांतिकारक तपागच्छ के आचार्य जगच्चन्द्रसूरिजी म.सा. प्रतिष्ठा-विधियों में क्रान्ति का प्रारंभ __ प्रतिष्ठा-विधियों में लगभग चौदहवीं शती से क्रांति आरंभ हो गयी थी। बारहवीं शती तक प्रत्येक प्रतिष्ठाचार्य विधि-कार्य में सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श और सुवर्ण मुद्रादि धारण अनिवार्य गिनते थे, परंतु तेरहवीं शती और उसके बाद के कतिपय सुविहित आचार्यों ने प्रतिष्ठा-विषयक कितनी ही बातों के सम्बन्ध में ऊहापोह किया और त्यागी गुरु को प्रतिष्ठा में कौन-कौन से कार्य करने चाहिए इसका निर्णय कर नीचे मुजब घोषणा की "थुइदाण 1. मंतनासो 2; आह्वाणं तह जिणाणं 3 दिसिबंधो 4 / नित्तुम्मीलण 5 देसण, 6 गुरु अहिगारा इहं कप्पे।।' अर्थात्-‘स्तुतिदान याने देववन्दन करना स्तुतियाँ बोलना 1, मन्त्रन्यास अर्थात् प्रतिष्ठाप्य प्रतिमा पर सौभाग्यादि मंत्रों का न्यास करना 2, प्रतिमा में आह्वान करना 3, मन्त्र द्वारा दिग्बंध करना 4, नेत्रोन्मीलन याने प्रतिमा के नेत्रों में सुवर्णशलाका से अंजन करना 5, प्रतिष्ठाफल प्रतिपादक देसना (उपदेश) करना 6 / प्रतिष्ठा-कल्प में उक्त छः कार्य गुरु को करने चाहिए।' __ अर्थात्- इनके अतिरिक्त सभी कार्य श्रावक के अधिकार के हैं। यह व्याख्या निश्चित होने के बाद सचित्त पुष्पादि के स्पर्श वाले कार्य त्यागियों ने छोड़ दिये और गृहस्थों के हाथ से होने शुरु हुए। परन्तु पन्द्रहवीं शती तक इस विषय में दो मत तो चलते ही रहे, कोई आचार्य-विधिविहित अनुष्ठान गिन के सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श तथा स्वर्णमुद्रादि धारण निर्दोष गिनते थे, तब कतिपय सुविहित आचार्य उक्त कार्यों को सावध गिन के निषेध करते थे। इस वस्तुस्थिति का निर्देश आचार-दिनकर में नीचे लिखे अनुसार मिलता है__ “ततो गुरुर्नवजिनबिम्बस्याग्रतः मध्यमांगुलीद्वयोर्वीकरणेन रौद्रदृष्ट्या तर्जनीमुद्रां दर्शयति। ततो वामकरण जलं गृहीत्वा रौद्रदृष्ट्या बिम्बमाछोटयति। केषांचिन्मते स्नात्रकारा वामहस्तोदकेन प्रतिमामाछोटयन्ति।'(252) -280