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________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा षष्ठ नाम - तपागच्छ भगवान महावीर स्वामीजी की 43वीं पाट पर आचार्य श्री सोमप्रभसरिजी तथा आचार्य श्री मणिरत्नसूरिजी हुये। 44वीं पाट पर आ. श्री मणिरत्नसूरिजी के शिष्य आचार्य श्री जगच्चंद्रसूरिजी हुए। वे परम संवेगधारी थे। यथासमय गुरु ने उन्हें आचार्यपद प्रदान किया। उन्होंने अपने गच्छ के साधुओं में शिथिलाचार का प्रवेश होता देख किसी त्यागी महात्मा की निश्रा में विशुद्ध चारित्र पालन द्वारा आत्महित का निर्णय किया। उन्हें चैत्र गच्छीय आचार्य भुवनचंद्रसूरिजी के शिष्य उपाध्याय देवभद्रगणि के त्याग और संवेग का पता चला। गुरु की आज्ञा लेकर आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी ने उपा. श्री देवभद्रगणिजी की सहायता से विशुद्ध चारित्र और निरीह तप करना शुरु किया। आ. श्री जगच्चंद्र सूरिजी ने वि. सं. 1273 में उपा. श्री देवभद्रगणि और स्वशिष्य देवेन्द्रसूरिजी की सहाय से क्रियोद्धार किया। उसके बाद आ. श्री सोमप्रभसूरिजी का भीनमाल में और आ. श्री मणिरत्नसूरिजी का दो महीने पश्चात् थराद में स्वर्गवास हुआ।' आ.श्री जगच्चंद्रसूरिजी और उपा.श्री देवभद्रगणि दोनों महात्मा परस्पर सहायक बनकर आराधना और प्रचार करते थे। जगच्चंद्रसूरिजी के तप त्याग का देवभद्र गणि पर बड़ा भारी असर था। वे जगच्चंद्रसूरिजी के उपसम्पदादाता होने पर भी उन्हें शिष्य स्थानीय न मानकर अनेक बातों में अपने गुरु-स्थानीय मानते थे। साथ में ही विचरते और एक ही सामाचारी का पालन करते थे, जो बड़ गच्छ की परंपरा में चल रही थी। आ.श्री जगच्चंद्रसूरिजी ने यावज्जीव आयंबिल का 1. क्रियोद्धार के कुछ समय बाद ही आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी के दीक्षा गुरु आ. श्री मणिरत्न सूरिजी देवलोक हो चुके थे एवं क्रियोद्धार हेतु उपाध्याय श्री देवभद्रगणिजी की उपसंपदा में रहे हुए, होने से तत्कालीन ग्रंथों की प्रशस्ति में आ. जगच्चंद्रसूरिजी, उपा. देवभद्रगणिजी के शिष्य के रूप में उल्लिखित किये हुए मिलते हैं। जबकि उनकी गुरुपरंपरा का उल्लेख गुणरत्नसूरिकृत क्रियारत्नसमुच्चय, आ. मुनिसुंदरसूरिकृत गुर्वावली, तपागच्छ पट्टावली आदि अनेक ग्रंथों में स्पष्ट रूप से मिलता है। इस बात का ध्यान न होने से कुछ इतिहासकार विशेष अन्वेषण किये बिना आ. जगच्चंद्रसूरिजी को चैत्रवालगच्छीय ही मान बैठे हैं। जो सत्यान्वेषक होते हैं, उन्हें सत्य प्राप्त होता है। जैसे कि तपागच्छ का इतिहास भा.-1, खण्ड-1, पृ. 8 पर डॉ. शिवप्रसाद ने भी “जगच्चंद्रसूरिजी चैत्र गच्छीय नहीं परंतु बृहद्गच्छीय ही थे, ऐसी सिद्धि की है।" 2. चैत्र गच्छ बड़गच्छ की ही शाखा थी। देखिये परिशिष्ट-2 16
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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