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________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा तृतीय नाम-चंद्रगच्छ (चांद्रकुल) तेरहवीं पाट पर आचार्य वज्रस्वामी हुए जो अंतिम दश-पूर्वधर थे। आचार्य श्री वज्रस्वामीजी की शिष्य परंपरा ‘वज्री शाखा' (वैरी शाखा) के रूप से पहचानी जाने लगी। उनके प्रशिष्य श्री चन्द्रसूरिजी से 'चंद्रगच्छ' (चान्द्र कुल) प्रसिद्ध हुआ। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है विक्रम की दसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में पुनः बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा। श्री वज्रस्वामीजी ने 500 साधुओं के साथ दक्षिण में रथावर्तगिरी पर अनशन किया। उस श्रमण संघ में से श्री वज्रसेनसूरिजी, गुरु की आज्ञा से श्रमण परंपरा को कायम रखने हेतु विहार करके सोपारक नगर गये। वहाँ पर वज्रस्वामीजी के अंतिम समय के वचनानुसार वज्रसेनसूरिजी ने अकाल की शांति का भविष्य जानकर शेठ जिनदत्त, शेठाणी ईश्वरी एवं नागेन्द्र, चंद्र, निवृत्ति और विद्याधर नाम के उनके चार पुत्रों को लाख मूल्यवाले भात (चावल) में जहर मिलाने का मना करके, उन्हें मृत्यु के मुख से बचाया। बाद में पूरे परिवार ने दीक्षा अंगीकार की। चारों पुत्र क्रमशः आचार्य बने। इन चारों आचार्यों के नाम से वीर निर्वाण संवत 630 के बाद चार गच्छों की उत्पत्ति हुई। चार आचार्यों में से चन्द्रसूरिजी से चंद्रगच्छ (चान्द्रकुल) प्रख्यात हुआ। ___ नागेन्द्रसूरिजी से निकले नागेन्द्र गच्छ में वनराज चावड़ा प्रतिबोधक आचार्य श्री शीलगुणसूरि, वस्तुपाल के गुरु श्री विजयसेनसूरि, स्याद्वाद मंजरीकार श्री मल्लिषेणसूरि, चांद्र कुल में नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि*, निवृत्ति कुल में शीलाङ्काचार्य एवं द्रोणाचार्य, नवखंडा पार्श्वनाथ प्रभु के प्रतिष्ठापक महेन्द्रसूरि और विद्याधर गच्छ के 1444 ग्रंथों के रचयिता सूरिपुरंदर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से तीन परंपराएँ अधिक काल अस्तित्व में नहीं रही केवल चान्द्र कुल आगे तक चलता रहा। इस तरह पंद्रहवीं पाट पर हुए श्री चंद्रसूरिजी से श्रमण परंपरा का तीसरा नाम चंद्र गच्छ अथवा चान्द्रकुल' पड़ा। __उपर्युक्त समय दरम्यान यदि कोई निर्ग्रन्थ श्रमण अपनी कल्पना से सिद्धान्त के विरोधी तर्क चलाता तो श्रमण-संघ उनको समझाकर सिद्धान्त के अनुकूल चलने के लिये बाध्य करता। फिर भी कोई दुराग्रह को न छोड़े तो श्रमण संघ उन्हें संघ से दूर किये जाने की उद्घोषणा कर देता। श्रमण भगवान महावीर की जीवित अवस्था * प्रभावक चरित्र एवं अभयदेवसूरिजी कृत टीका की प्रशस्तिओं से पता चलता है कि वे चांद्रकुल के ही थे। 10
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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