________________ श्रीबुद्धिसागरसूरिश्चक्रे व्याकरणं नवम्। सहस्राष्टकमानं तच्छ्रीबुद्धिसागराभिधम्।।90।। अन्यदा विहरन्तश्च, श्रीजिनेश्वरसूरयः। पुनर्धारापुरीं प्रापुः, सपुण्यप्राप्यदर्शनाम्।।91।। भावार्थ - आचार्य वर्धमानसूरि ने जिनेश्वर व बुद्धिसागर को योग्य समझकर सूरि पद दिया और उनको आज्ञा दी कि पाटण में चैत्यवासी आचार्य सुविहितों को आने नहीं देते हैं,अतः तुम जाकर सुविहितों के ठहरने का द्वार खोल दो। गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि विहार कर क्रमशः पाटण पहुँचे घर घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिये उपाश्रय नहीं मिला। उस समय पाटण में राजा दुर्लभ राज करता था और सोमेश्वर नाम का राजपुरोहित भी वहाँ रहता था। दोनों मुनि चलकर उस पुरोहित के यहाँ आये और आपस में वार्तालाप होने से पुरोहित ने उनका सत्कार कर ठहरने के लिये अपना मकान दिया क्योंकि जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि जाति के ब्राह्मण थे। अतः ब्राह्मण का सत्कार करे यह स्वाभाविक बात है। इस बात का पता जब चैत्यवासियों को लगा तो उन्होंने अपने आदमियों को पुरोहित के मकान पर भेजकर साधुओं को कहलाया कि इस नगर में चैत्यवासियों की आज्ञा के बिना कोई भी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं अतः तुम जल्दी से नगर से चले जाओ इत्यादि। आदमियों ने जाकर सब हाल जिनेश्वरादि को सुना दिया। इस पर पुरोहित सोमेश्वर ने कहा कि मैं राजा के पास जाकर निर्णय कर लूँगा आप अपने मालिकों को कह देना। उन आदमियों ने जाकर पुरोहित का संदेश चैत्यवासियों को सुना दिया। इस पर वे सब लोग शामिल होकर राजसभा में गये। इधर पुरोहित ने भी राजसभा में जाकर कहा कि मेरे मकान पर दो श्वेताम्बर साधु आये हैं मैने उनको गुणी समझकर ठहरने के लिये स्थान दिया है। यदि इसमें मेरा कुछ भी अपराध हआ हो तो आप अपनी इच्छा के अनुसार दंड दें। चैत्यवासियों ने राजा वनराज चावड़ा और आचार्य देवचंद्रसूरि का इतिहास सुनाकर कहा कि 'आपके पूर्वजों से यह मर्यादा चली आई है कि पाटण में चैत्यवासियों के अलावा श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकेगा। अतः उस मर्यादा का आपको भी पालन करना चाहिये' इत्यादि। इस पर राजा ने कहा कि मैं अपने पूर्वजों की मर्यादा का दृढ़ता पूर्वक पालन इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /087