________________ क्या जिनेश्वरसूरिजी और सूराचार्य मिले थे? वृद्धाचार्य प्रबन्धावली आदि खरतरगच्छ के परवर्ती ग्रंथों में तथा खरतरगच्छ के इतिहास संबंधी प्रायः वर्तमान के सभी साहित्य में सं. 1080 में जिनेश्वरसूरिजी का चैत्यवासी सूराचार्य के साथ वाद होना भी बताया जाता है, जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विसंवाद से भरा हुआ प्रतीत होता है क्योंकि____ 1. एक तो सं. 1080 में दुर्लभ राजा के नहीं होने से, उसकी राज-सभा में वाद ही शक्य नहीं है। ___ 2. दुसरी बात, प्रभावक चरित्र के अनुसार सूराचार्य तो द्रोणाचार्य के भतीजे एवं शिष्य थे। तथा इसी ग्रंथ में सूराचार्य का दुर्लभराजा के बाद में हुए भीम देव (पाटण) एवं भोजराजा (मालवा) संबंधित रोमांचक इतिहास भी दिया है। दुर्लभ राजा की राज्यसभा में जिनेश्वरसूरिजी के प्रतिस्पर्धी आचार्य एवं चैत्यवासिओं के अधिपति के रूप में सूराचार्य का होना भी संभव नहीं है क्योंकि जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य ऐसे अभयदेवसूरिजी के समय तक तो सूराजार्य के गुरु द्रोणाचार्य ही पाटण संघ के प्रमुख आचार्य के रूप में विद्यमान थे। एवं वे चैत्यवासी होते हुए भी शुद्ध प्ररुपक थे, इसीलिए अभयदेवसूरिजी ने भी अपनी नवाङ्गी टीकाओं एवं अन्य ग्रंथों का उनके पास संशोधन करवाया था। अभयदेवसूरिजी ने स्वयं भगवती सूत्र' की टीका की प्रशस्ति केशास्त्रार्थनिर्णयसुसौरभलम्पटस्य, विद्वन्मधुव्रतगणस्य सदैव सेव्यः। श्री निर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः श्री द्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः॥9॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन। शास्त्रार्थनिष्कनिकषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम्।।10॥ इन दो श्लोकों में 9वें श्लोक में-द्रोणाचार्यजी को शास्त्रार्थ निर्णय हेतु आश्रयणीय कहकर उनकी ज्ञान-गरिमा एवं शुद्धप्ररूपकता की प्रशंसा की है। उसी तरह 10वें श्लोक में 'विदुषां महासमूहेन...' के द्वारा द्रोणाचार्यजी के शिष्यों की ज्ञान गरिमा एवं शुद्ध प्ररूपकता की भी प्रशंसा की है। * देखें - खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास-महोपाध्याय विनयसागरजी। - खरतरगच्छ का उद्भव-आ. जिनपीयूषसागरसूरिजी। - खरतरगच्छ का गौरवशाली इतिहास-मुनि मनितप्रभसागरजी, श्वेताम्बर जैन, जुन 2016 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /037