________________ 3. प्रभाचंद्रसूरिविरचित 'प्रभावकचरित्र' का अभयदेवसूरिप्रबन्ध। 4. सोमतिलकसूरिकृत 'सम्यक्त्व सप्ततिकावृत्ति' में कथित धनपाल कथा। 5. किसी अज्ञातनामक विद्वान् की बनाई हुई प्राकृत ‘वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि'................ 5) पांचवाँ साधन, एक प्राकृत ‘बृद्धाचार्यप्रबन्धावलि' है जो हमें पाटण के भण्डार में उपलब्ध हुई है। इसके रचयिता का कोई नाम नहीं मिला। मालूम देता है जिनप्रभ सूरि (विविधतीर्थकल्प तथा विधिप्रपा आदि ग्रंथों के प्रणेता) के किसी शिष्य की की हुई रचना है, क्योंकि इसमें जिनप्रभ सूरि एवं उनके गुरु जिनसिंह सूरि का भी चरित-वर्णन किया हआ है। इसमें संक्षेप में वर्द्धमान सूरि, जिनेश्वर सूरि आदि आचार्यों का चरित-वर्णन है परंतु वह प्रायः इधर-उधर से सुनी गई किंवदन्तियों के आधार पर लिखा गया मालूम दे रहा है। इससे इसका भी ऐतिहासिकत्व विशेष विश्वसनीय हमें नहीं प्रतीत होता। जिनेश्वर सूरि की पूर्वावस्था का ज्ञापक उल्लेख इसमें और ही तरह का है जो सर्वथा कल्पित मालूम देता है। ___ इन साधनों में, प्रथम के तीन निबन्ध हमें अधिक आधारभूत मालूम देते हैं और इसलिये इन्हीं निबन्धों के आधार पर हम यहाँ जिनेश्वर सूरि के चरित का सार देने का प्रयत्न करते हैं। (कथाकोष प्रकरण-प्रस्तावना पृ. 20-21) (3) वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिगत जिनेश्वर सूरि के चरित का सार। ___ ऊपर हमने, इनके चरित का साधनभूत ऐसे एक प्राकृत ‘वृद्धाचार्यप्रबन्धावलि' नामक ग्रंथ का भी निर्देश किया है। इसमें बहुत ही संक्षेप में जिनेश्वर सूरि का प्रबन्ध दिया गया है जो कि असंबद्धप्रायः है।* (कथाकोषप्रकरण-प्रस्तावना, पृ. 36) (4) कथाओं के सारांश का तारण। इस प्रकार ऊपर हमने जिनेश्वरसूरि के चरित का वर्णन करने वाले जिन * जिनविजयजी की यह बात सही है, क्योंकि इस प्रबन्धावली में सं. 1167 में स्वयं अभयदेवसूरिजी के हाथ से जिनवल्लभगणिजी को आचार्य पद दिये जाने की बात लिखी है, वह इतिहास विरुद्ध है। इतिहास में अभयदेवसूरिजी का सं. 1134/ सं. 1138 स्वर्गवास होना बताया है, तो सं. 1167 में वे कैसे मौजूद हो सकते हैं? - संपादक इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /032