________________ पत्र नं. 2 की समीक्षा दूसरे पत्र में आचार्य श्री ने लालचंद भगवानदास गांधी का जो प्रमाण दिया है, जिसमें आ. जिनचंद्रसूरिजी ‘संवेगरंगशाला' के कर्ता थे, इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण दिये हैं, परंतु उनके खरतरगच्छीय होने का एक भी प्रमाण नहीं दिया है। इतना ही नहीं उसमें तो इस प्रकार लिखा है- 'खरतरगच्छ वालों की मान्यता यह है कि उस वाद में विजय पाने से महाराजा ने विजेता जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' शब्द कहा या बिरुद दिया। इसके बाद उनके अनुयायी खरतरगच्छ वाले पहचाने जाते हैं। दुर्लभराज का राज्य समय वि.सं. 1065 से 1078 तक प्रसिद्ध है तो भी खरतरगच्छ की स्थापना का समय सं. 1080 माना जाता है।' इसमें तो उन्होंने, ‘खरतरगच्छ वाले इस प्रकार मानते हैं' ऐसा लिखा है यानि उसमें उनकी खुद की सम्मति नहीं है तथा उन्होंने अंतिम वाक्य में तो भी' शब्द से इतिहास में 1078 तक ही दुर्लभराज का राज्य होना सिद्ध होने पर भी खरतरगच्छ के द्वारा सं. 1080 में दुर्लभराज द्वारा खरतर बिरुद दिये जाने की विसंवादी प्ररूपणा की जाने की बात स्वीकारी है। अतः इस प्रमाण से आ. जिनचंद्रसूरिजी का खरतरगच्छीय होना सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार सूक्ष्म अवलोकन करने पर उनके दोनों पत्रों में दिये गये प्रमाण अर्वाचीन एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वहीन सिद्ध होते हैं। * देखें पृ. 168 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /173 )