________________ लिखी थी। उसमें भी खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। वह सिंधी प्रकाशन माला से प्रकाशित हो चुकी है तथा महोपाध्याय विनयसागरजी ने उसका अनुवाद 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' में दिया है। उसमें भी खरतर बिरुद प्राप्ति की बात नहीं लिखी है। (प्रमाण के लिए देखें-परिशिष्ट-3, पृ. 109 से 115) 14.सं. 1328 में लक्ष्मीतिलक उपाध्यायजी ने प्रबोधमूर्ति गणिजी विरचित 'दुर्गपदप्रबोध' ग्रंथ पर वृत्ति लिखी। उसकी प्रशस्ति में 'चान्द्रकुलेऽजनि गुरुजिनवल्लभाख्यो' लिखा है। तथा जिनदत्तसूरिजी से विधिपथ' सुख पूर्वक विस्तृत हुआ ऐसा लिखा है। उसमें ‘खरतर गच्छ' की तो कोई बात ही नहीं लिखी है। जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद नहीं मिला था!!! क्योंकि जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' विरुद होता तो उनके समय से उनका गच्छ 'खरतरगच्छ' के रूप में प्रसिद्ध होता! जब कि जिनदत्तसूरिजी से अथवा उनके बाद ही खरतरगच्छ की प्रसिद्धि मानी जाती है / देखिये : 'खरतरगच्छ के विद्वानों का मन्तव्य" ___ 1. “आगे जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि के समय यह परम्परा विधिमार्ग के नाम से जानी गयी और यही आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई।" -महो. विनयसागरजी (खरतरगच्छ का बृहत इतिहास, खण्ड 1 पृ. 12) 2. “जिनदत्तसूरिजी के समय विधिमार्ग ‘खरतरगच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। -मुनि मनितप्रभसागरजी म.सा. (समस्या, समाधान और संतुष्टि, पृ. 192) ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /017 )