________________ लघुवृत्ति एवं सुमतिगणिजी की बृहद्वृत्ति के संदर्भ ग्रंथ दिये हैं, उनमें भी खरतर बिरुद की बात नहीं है। * वर्तमान में बृहद्वृत्ति का ‘प्राप्त खरतर बिरुद भगवन्तः श्री जिनेश्वरसूरयः' ___ ऐसा पाठ दिया जाता है, तत्संबंधी स्पष्टीकरण के लिए देखें परिशिष्ट 3, पृ. 100-103 7. आ.श्री जिनपतिसूरिजी ने भी ‘सङ्घपट्टक' की बृहद्वृत्ति में खरतर बिरुद की बात नहीं लिखी है। बल्कि 'सुरिःश्रीजिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्रे कुले।' इस प्रकार 'चान्द्रकुल' का ही उल्लेख किया है। उसी तरह 'पंचलिंगी प्रकरण' की टीका में भी चान्द्रकुल ही लिखा है। 8. आ. श्री जिनपतिसूरिजी के शिष्य श्री नेमिचंद्रसूरि कृत 'षष्टि शतक' में 'नंदउ विहिसमुदाओ' लिखा है, 'खरयरसमुदाओ' नहीं लिखा है। 9. पू.आ.श्री अभयदेवसूरिजी के प्रशिष्य गुणचंद्रगणिजी जो बाद में आ. देवभद्रसूरिजी बने, उन्होंने सं. 1139 में 'महावीर चरियं, सं. 1158 में 'कथारत्नकोश', एवं सं. 1168 में पासनाहचरियं की रचना की थी। उनकी प्रशस्ति में चान्द्रकुल ही लिखा है। 10. अभयदेवसूरिजी के पट्टधर वर्धमानसूरिजी' ने सं. 1140 में 'मनोरमा कहा' एवं सं. 1160 में 'ऋषभदेव चरित्र' की रचना की थी। इसकी प्रशस्ति में भी ‘खरतर' बिरुद का उल्लेख नहीं है, केवल चान्द्रकुल का ही उल्लेख किया है। 11.सं.1292 में, जिनपालोपाध्यायजी ने जिनेश्वरसूरिजी रचित 'षट्स्थानक प्रकरण' की टीका तथा सं. 1293 में द्वादशकुलक की टीका लिखी थी। उसकी प्रशस्ति में भी 'खरतर' बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है, परंतु चान्द्रकुल ही लिखा है। 12.सं. 1294 में पद्मप्रभसूरिजी ने 'मुनिसुव्रत चरित्र' की रचना की। उसकी प्रशस्ति में भी ‘खरतर' बिरुद की बात नहीं है। 13.सं. 1305 में जिनपालोपाध्यायजी ने खरतरगच्छालङ्कार गुर्वावली 1. गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति एवं बृहद्गुर्वावली के अनुसार भी अभयदेवसूरिजी ने वर्धमानसूरिजी को अपनी पाट-परंपरा सौंपी थी। तथा जिनवल्लभगणिजी ने वर्धमानसूरिजी की प्रशंसा अष्टसप्ततिका के 49वें श्लोक में की है। देखें पृ. 55. इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /016