________________ संस्मरणमकारि।" इसका भावार्थ यह है कि-इस संवेगरंगशाला कृति का संस्मरण, पीछे होनेवाले अनेक ग्रंथकारों ने किया है। इसका समर्थन करने के लिए मैंने वहाँ (1) गुणचन्द्रगणि का महावीरचरित, (2) जिनदत्तसूरि का गणधरसार्धशतक, (3) जिनपतिसूरि का पंचलिंगीविवरण (4) सुमतिगणि की गणधरसार्धशतक वृत्ति, (5) संघपुर मंदिर-शिलालेख, (6) चन्द्रतिलक उपाध्याय का अभयकुमार चरित तथा (7) भुवन हित उपाध्याय के राजगृहशिलालेख में से-अवतरण टिप्पणी में दर्शाये थे, वे इस प्रकार है श्रीगुणचंद्र गणिने विक्रम संवत् 1139 में रचित प्राकृत महावीरचरित में प्रशंसा की है कि “संवेगरंगसाला न केवलं कव्वविरयणा जेण। भव्वजणविम्हयकरी विहिया संजम-पवित्ती वि।" भावार्थ - जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरि ने) सिर्फ संवेगरंगशाला काव्य-रचना ही नहीं की, भव्यजनों को विस्मय करानेवाली संयमप्रवृत्ति भी की थी। (2) श्रीजिनदत्तसूरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी-उत्तरार्ध में रचित प्रा. गणधरसार्धशतक में प्रशंसा की है कि संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। रागाइवेरिभयभीय-भव्वजणरक्खण निमित्तं।।" भावार्थ- जिसने (श्रीजिनचंद्रसूरिजी ने) रागादि वैरियों से भयभीत भव्यजनों के रक्षण-निमित्त विशाल किला जैसी संवेगरंगशाला की। (3) श्रीजिनपतिसूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में रचित पंचलिंगीविवरण सं. में प्रशंसा की है कि “नर्तयितुं संवेगं पुनर्नृणां लुप्तनृत्यमिव कलिना। संवेगरङ्गशाला येन विशाला व्यरचि रुचिरा।।" भावार्थ:- जिसने (श्रीजिनचंद्रसूरिजी ने), कलिकाल से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे मानो मनुष्यों के संवेग को नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेगरंगशाला रची। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /163 )