________________ की अर्वाचीन से. ला. की ह. लि. प्रति से अवतरण द्वारा दर्शाया था “विक्कमनिवकालाओ समइक्कतेसु वरिसाण। एक्कारमसु सएसु पणवीस समहिएसु॥ निष्पत्तिं संपत्ता एसाराहण त्ति फुडपायडपयत्था।" भावार्थ- विक्रमनृपकाल से 1125 वर्ष बीतने के बाद स्फुट प्रगट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई। इसके पीछे मैंने बृहट्टिप्पणिका का भी संवाद दर्शाया था-'संवेगरङ्गशाला 1125 वर्ष नवाङ्गाभयदेववृद्ध भ्रातृजिनचंद्रीया 10053' / __ मैंने वहाँ संस्कृत में संक्षेप में परिचय कराया था कि 'आराधनेत्यपराह्वयं नवाङ्गवृत्तकाराभयदेवसूरेरम्यर्थनया विरचिता। विरचयिता चायं जिनेश्वरसूरेर्मुख्यः शिष्योऽभयदेवसूरेश्च वृद्धसतीर्थ्यः।' __ अभयदेवसूरि पर टिप्पणी में मैंने उसी संवेगरंगशाला की से. ला. की ह. लि. प्रति से पाठ का अवतरण वहाँ दर्शाया था “सिरिअभयदेवसूरि त्ति पत्तकित्ती परं भवणे॥(10041) जेण कुबोह महारिउ विहम्ममाणस्स नरवइस्सेव। सुयम्मस्स दढत्तं, निव्वत्तियमंगवित्तीहिं।। (10042) तस्सब्भत्थणवसओ सिरिजिणचंदमुनिवरेण इमाण। मालागारेण व उच्चिणिऊण वरवयणकुसुमाइं॥(10043) मूलसुय-काणणाओ, गुंथित्ता निययमइगुणेण दढं। विविहत्थ-सोरभभरा, निम्मवियाराहणामाला॥(10044)" भावार्थ - भक्त में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले श्री अभयदेवसूरि हुए। जिसने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों की वृत्तियों द्वारा किया। उनकी अभ्यर्थना के वश से श्री जिनचन्द्र मुनिवर ने मालाकार की तरह, मूलश्रुत रूप उद्यान से श्रेष्ठ वचन-कुसुमों का उच्चुंटन कर, अपने मतिगुण से दृढ़ गुंथन करके विविध अर्थ-सौरभ-भरपूर यह आराधनामाला रची इसके पीछे मैंने वहाँ सूचन किया है कि “पाश्चात्यैरनेकैर्ग्रन्थकारैरस्यः कृतेः इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /162 )