________________ जिनेश्वरसूरिजी एवं उनके शिष्यों के उल्लेख जिनेश्वरसूरिजी प्रकाण्ड विद्वान्, विशुद्ध चारित्री तथा प्रभावक आचार्य थे। इसमें कोई मतभेद नहीं है, परंतु वि. सं. 1080 में आ. जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद मिलने की बात उचित प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो वे अपने ग्रन्थों में खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख करते। उन्होंने सं. 1080 में ही जालोर में 'अष्टक प्रकरण' की टीका लिखी थी एवं सं. 1108 में 'कथाकोशप्रकरण' की रचना की थी। इस बीच में उन्होंने ‘पञ्चलिङ्गी प्रकरण', 'वीर चरित्र', 'निर्वाण लीलावती', 'षट्स्थानक प्रकरण', 'चैत्यवंदन विवरण' आदि ग्रंथों की भी रचना की थी। परन्तु उन्होंने कहीं पर भी खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। मान लिया कि आ. श्री जिनेश्वरसूरिजी परमसवेगी एवं निस्पृह शिरोमणि थे, अतः उन्होंने अपने ग्रंथों में उक्त घटना का उल्लेख नहीं किया हो। परंतु जिस तरह आ. जगच्चंद्रसूरिजी को ‘तपा' बिरुद मिला था' ऐसा उक्त घटना के साक्षी, उनके ही शिष्य आ. देवेन्द्रसूरिजी ने कर्मग्रंथ की प्रशस्ति में अपने गुरुदेव की स्तुति करते हुए उल्लेख किया है एवं उक्त घटना के लिए सभी एकमत हैं। ___ उसी तरह वि. सं. 1080 में आ. जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिलने की घटना बनी होती तो उनके शिष्य-प्रशिष्य भी उनका उल्लेख अवश्य करते। खुद की निस्पृहता से प्रेरित होकर मौन रहने का अवसर नहीं होता। जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य-प्रशिष्य ने भी अपने ग्रंथों में उनके भरपूर गुणगान किये ही हैं, परंतु कहीं पर भी खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख किया हो ऐसा नहीं मिलता। जैसे कि 1. जिनेश्वरसूरिजी के गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरिजी ने सं. 1080 में जालोर में *1 अ) देखें आगे पृष्ठ 46 की टिप्पणी में दिये हए पाठ। ब) खरतरगच्छ के आ. जिनपीयूषसागरसूरिजी ने भी ‘कमजोर कड़ी कौन?' पृ. 133 पर लिखा है- 'जगच्चन्द्रसूरि-आपकी कठोर तपश्चर्या से मुग्ध बन चित्तौड़ के महाराणा ने 'तपा' बिरुद दिया, जिससे बड़गच्छ का नाम तपागच्छ हुआ।' स) तत्र तेषां श्री तपागच्छालङ्कारभूताः श्री देवेन्द्रसूरयो मीलिताः।। - अंचलगच्छ बृहत् पट्टावली, महेन्द्रसूरि अधिकार *2. यहाँ पर दिये ग्रंथों के साक्षी पाठ हेतु देखें परिशिष्ट 3-4, 92 से 118. इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /014