________________ सुमित्र लन चरित्रम् मनुष्योए तेनाथी धर्मरुप फल प्राप्त करचु जोइए. // 18 // न प्राप्ते प्रणे निधौ रत्न-रिव बालो वराटिकां // मूखों मुक्तिफले भोगा-नीहते नरजन्मनि // 19 // अर्थ- रत्नथी परिपूर्ण एवं निधान प्राप्त थया छतां मूर्ख मनुष्य कोडो मेलबवा इच्छे तेम मोक्षफळने आपे एवो मनुष्यजन्म पामीने आ पाणी तेनावडे भोगने इच्छे छे. // 19 // | तस्माद्धर्मः सदा सेव्यः / कल्पगुरिव कामदः // सारं तस्यापि संतोषो / गोरसस्य घृतं यथा // 20 // अर्थ-तेथी आ मनुष्य जन्ममां धर्मज सदा सेवबा लायक छे, कल्पवृक्षनो जेम ते सर्व इच्छितने आपनार छे, ते धर्ममां पण गोरसमां घृतनी जेम संतोष सारभूत छे. // 20 // यदुक्तं-संनिधौ निधयस्तस्य / कामगव्यनुगामिनी // अमराः किंकरायंते | संतोषो यस्य भूषणं // 21 // ___अर्थ-को छ के-संतोपरुप भूषण जेणे माप्त कर्यु छे तेने सर्व निधानो समीपज छे, अर्थात् कामधेनु तो तेनी पाछळ चाले छे, देवो दास थइ रहे छे. // 21 // असंतोषवतः सौख्यं / न शक्रस्य न चक्रिणः॥ जंतोः संतोषभाजो य-दुभयस्यैव जायते // 22 // अर्थ-असंतोषी एवा चक्रीने के इंद्रने पण सुख नथी. जेओ संतोषवाळा होय छे तेमनेज ते बने सुखदायक स्थिति प्राप्त थाय छे. असंतोषोद्भवो लोभः / परमं वैरकारणं // नृपमंत्रीभ्यारक्षक-पुत्राश्चात्र निदर्शनं // 23 // MODEODDDDDDDDDDDDDE ना॥८७॥ P.P.Ar Gunratrasuri M.S Jun Gan Aaradhak Trust