________________ सुमित्र // 21 // तमे शा माटे करो छो?' // 98 // ब्राह्मणोऽवक्कुमारेद-मज्ञात्वा प्रोच्यते किमु // यतो जीवदयाधर्म / उत्तम कर्म कथ्यते // 99 // | अर्थ-ब्राह्मण बोल्यो के-" हे कुमार! तुं अज्ञात होवाथी आ प्रमाणे पूछे छे; परंतु जीवदयारूप धर्म सर्व धर्ममां उत्तम कहेलो छे. // 99 // | सत्यमेतत्परं विप्र / कथं जीवदया वद // सोऽवादीत् श्रृणु सद्धर्म-कर्मकर्मठपुंगव // 10 // ___अर्थ-सुमित्रे का के-'हे विप्र ! ते वात साची छे परंतु अहीं जीवदया शुं छे ?' ते बोल्यो के-'हे सद्धर्मकर्ममां स्थित थयेला मनुष्योमा श्रेष्ठ ! सांभळ ! // 10 // अहं गुरुप्रसादेन / संजीविन्या सुविद्यया // संमील्यावयवानेतान् / जीवयिष्यामि देहिनः॥१॥ - अर्थ-हुँ गुरुप्रसादथी प्राप्त थयेली संजीविनी विद्यावडे आ मनुष्योमा पोतपोताना अवयवोने जोडी दइने तेने जीवता करीश.॥१॥ श्रुत्वेति तद्वचो याव-स्थितास्ते कुतुकप्रियाः // सुभटानां शरीरेषु / मूर्छितानां मुहुर्मुहुः // 2 // / अर्थ-तेना आवा वचनो सांभळीने कौतुकपिय एवा ते तेनी कृति जोगा माटे त्यां उभा रह्या-रोकाणा. एटले पेला विषे | मुछित एवा सुभटोना शरीरना विभागो वारंवार // 2 // यथायोग्यं गृहीत्वाशु / योजयित्वा करान् क्रमान् // कबंधेष्वर्धछिन्नानि / मस्तकानि तथैव च // 3 // Jun Gun Aaradhak Trust PP.Ac GunratnasuriM.S. .