________________ त्रिम उत्कृष्टं मंगलं धर्मो / धर्मः शर्मकरः सदा // समृद्धिदः सतां धर्मों। धर्मः कर्ममलापहः // 77 // न अर्थ-धर्म उत्कृष्ट मंगळ छे, धर्म सदा सुखने करनार छे, धर्म सज्जनोने समृद्धिनो आपनार छे अने धर्म कर्ममळने दूर करनार छे. // 77 // | अतः श्रीधर्मकल्पनुः / सद्भिः सेव्यो निरंतरं // दानशीलतपोभाव-शाखः सौख्यफलप्रदः॥ 78 // ___अर्थ-माटे उत्तम जनोए धर्मरुप कल्पवृक्ष निरंतर सेवन करवा योग्य छे. ते धर्मरुप कल्पवृक्ष दान, शील, तप अने भावरुप | चार शाखावाळो छे अने सर्व प्रकारना सुखरुप फळने आपनारो छे. / / 78 / / सुरासुरनरस्फार-समृद्धिफलदायिनो // सेवनीया प्रयत्नेन | धर्माख्या कल्पवल्लरी // 79 // . अर्थ-वळी उत्तम जनोए सुर, असुर अने मनुष्यनी स्फार समृद्धिरुप फळने आपनारी धर्म नामनी कल्पवेलडी प्रयत्नवडे सेवा योग्य छे. // 79 // दासीजीवः परिभ्रम्य / दुष्टधीः स भवान् बहन् / बभूव वैरिणीनाम्ना / गणिका विजये पुरे // 8 // ___अर्थ-हे राजन् ! तमारी जे दासी हती के जेने तमे कष्ट आप्यु हतुं ते तमारा पर द्वेष वहन करती दुष्ट भावे मरण पामीने मा घणा भव संसारमा भमी, प्रांते श्री विजयनगरमां वैरिणी नामे वेश्या थइ. // 8 // . . . - तया च भवतोरीह-वैरिण्या पूर्वजन्मनः // दीयतेस्म महदुःखं / क्रियते किं न वैरिभिः // 81 // ___अर्थ-तेणे पूर्वजन्मना वैरभावथी तमने महादुःख आप्यु, केमके वैरी शं शं करतो नथी ?' / / 81 // | // 118 // P.PAc Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhal Trust