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________________ maranand तृतीय प्रस्ताव। परीक्षा लेनेके विचारसे कहा,-"तुमसे बाहर जाना नहीं इन सकता; क्योंकि तुम्हारा शरीर बड़ाही कोमल है / शवने मेरी जिस विपदकी बात कही है, वह तो न जाने कब सिर पर आयेगी ; पर सुकुमारताके कारण परदेशकी तकलीफोंके मारे तुम्हारा मरना तो बहुतही शीघ्र सम्भव है / " यह सुन, अमरदत्तने कहा,-'मित्र! चाहे जो कुछ हो; पर मैं तो सुख या दुख तुम्हारे साथ ही भोग करूंगा।" उसकी ऐसी बात सुनकर मित्रानन्दके हृदयका विकार जाता रहा और दोनोंके दिल मिल गये। इसके बाद वे दोनों सलाह करके घरसे बाहर हुए और क्रमशः पाटलिपुत्र नगरमें आ पहुँचे। वहां उन्होंने नगरके बाहर एक नन्दन वनके समान मनोहर उद्यानमें ऊँची चहारदिवारीसे घिरा हुआ और ध्वजा.' पताकाओंसे सुशोभित एक सुन्दर प्रासाद देखा। उसे देखकर दोनों मित्रोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे पासवाली बावलीके जलमें हाथ, पैर और मुंह धोकर प्रासादके अन्दर चले गये और उसकी सुन्दरता देखने लगे / वहाँ अमरदत्तने एक पुतली देखी, जो रूपलावण्यमें ठीक देवाङ्गनासी मालूम होती थी। उसे देखकर अमरदत्त चित्रलिखितकी भांति अचल सा हो रहा और भूख, प्यास तथा थकावट भी भूल गया। इतने में मध्याह्नका समय हो गया देखकर मित्रानन्दने कहा, “भाई ! चलो नगरमें चलें; बहुत विलम्ब हो रहा है।" यह सुन, उसने कहा,"हे मित्र ! क्षणभर और ठहर जाओ, जिसमें मैं इस पुतलीको अच्छी तरह देख लू।” उसकी यह बात मान, कुछ देर ठहरनेके बाद मित्रानन्दने फिर कहा, “प्रिय मित्र ! चलो, नगरमें चलकर कहीं ठहरनेका ठीक-ठिकाना करें, खायें-पीयें, फिर यहीं चले आयेंगे।" यह सुन अमर- .. दत्तने कहा, “यदि मैं यहाँसे टला, तो जरूर मर जाऊँगा।" यह सुन मित्रानन्दने कहा,-"मित्र ! इस पत्थरको पुतली पर तुम्हारा इतना अनुराग क्योंकर हो गया ? यदि तुम्हें स्त्री-विलासकी ही इच्छा हो, तो नगरमें चलकर भोजन करके अपनी इच्छा पूरी कर लेना " इसी प्रकार बार-बार कहने परभी जब वह वहांसेन टला,तब मित्रा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gan Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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