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________________ nanamannamnar 44 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। स्वरूप जानना और धर्म करना ही उनके लिये उचित है, जो सुखकी इच्छा रखते हो। इस धर्मको मनसे अलग करना क्या है, सुखसे ही नातातोड़ करना है। जो मनसे धर्ममें अन्तर करता है, उसके सुखमें भी अन्तर पड़ जाता है। जैसे धनद नामक सेठके पुत्रको, जिसका दूसरा नाम मत्स्योदर था, अन्तरवाला धर्म करनेके कारण अन्तरवाला सुख भी प्राप्त हुआ था। यह सुन, अमिततेज राजाने भक्तिके साथ हाथ जोड़ मुनिसे पूछा, "हे पूजनीय ! वह मत्स्योदर कौन था ? उसने किस कर्मके दोषसे अन्तरवाला सुख पाया था ? उसकी कथा कृपाकर कहिये / " यह सुन मुनिने कहा,- .. मत्स्योदरकी कथा। * इसी भरतक्षेत्रमें अपनी समृद्धिके कारण अमरावतीकी बराबरी करनेवाला कनकपुर नामका एक नगर है। उस नगरमें नय, विनय इत्यादि गुणोंसे शोभित 'कनकरथ' नामके राजा थे। उनकी पटरानीका नाम 'कनकश्री' था। उसी नगरमें उदारता आदि गुणोंके अपार-खरूप, धर्मात्मा पुरुषोंमें अग्रसर और राजदरबारसे मान पाया हुआ रत्नसार नामका एक सेठ भी रहता था। उसकी भाऱ्या, जिसका नाम 'रत्नचूला'था, वह बड़ी ही लज्जावती, शीलवती और मीठी वाणी बोलनेवाली थी। उनके सुन्दर चरित्रवान् और सब कलाओंमें कुशल धनद नामका एक पुत्र था / . .. .. उसी नगरमें सिंहल. नामका एक जुआरी रहता था। वह सदा पुरदेवीके मन्दिर में कौड़ियाँ लिये हुए जुआ जमाये रहता था। एक दिन उस अभागेने कुछ भी नहीं जीता। इससे क्रोधित होकर उस दुष्टने P.P.AC.Gunratnasuri M.S.
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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