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________________ 42 श्रीशान्तिनाथ-चरित्र / / दूत भी सुताराको लिये हुये वहाँ आ पहुँचा और अखण्डित शीलवती सुताराको राजा श्रीविजयको सौंप दिया। इसी समय अशनिघोषने दोनों राजाओं से क्षमा मांगी। उन लोगोंने भी उसका यह भाव देख, अच्छा भादर-मान किया / इस प्रकार उनके दिलो के भेद-ईर्ष्याद्वेष-मिट गये। उसी समय केवलीने भी यह धर्मदेशना सुनायी, कि "रागद्वेषवशीभूता, जीवोऽनर्थपरम्पराम् / कृत्वा निरर्थकं जन्म, गमयन्ति यथा तथा // 1 // " - अर्थात--प्राणी रागद्वेषके वशमें पड़कर अनर्थों की लडीसी लगा .. देता है, जिससे उसका साराजीवन याही नष्ट हो जाता है / ___ रागद्वेषमें पड़े हुए प्राणी मोक्षपद पानेको समर्थ नहीं होते। हे * मनुष्यो! तुमलोग इन्हें अपना परम बलवान् शत्रु समझकर इनसे नेह मत लगाओ।" ___ इस प्रकारकी धर्मदेशना सुनकर बहुतसे मनुष्योंको ज्ञान उत्पन्न हो गया। इनमेंसे कितनोंहीने दीक्षा ग्रहण कर ली और कितनोंहीने श्रावकधर्म अङ्गीकार कर लिया। उसी समय अशनिघोषने केवलीसे पूछा,-- "हे प्रभु! बिना किसी प्रकारके रागद्वेषकेही, मैं उससुतारा नामक स्त्रीको हरण कर क्यों अपने घर लाया ?" केवलीने कहा,-"इस अमिततेजका जीव पूर्व भवमें रत्नपुर नामक प्राममें श्रषेण नामक राजा था / उस समय तुम कपिल नामके ब्राह्मण थे। उस समय उसके सत्यभामा नामकी एक प्यारी स्त्री थी। अनुक्रमले भव-भ्रमण करती हुई उस जन्मकी सत्यभामाही इस जन्ममें सुतारा हुई है और जो कपिल था, वही भव-भ्रमण करता हुआ, तपस्यीके कुलमें जन्म पाकर अशानतप करके अशनिघोष बन गया है। हे राजन् ! पूर्वभवके सम्बन्धसे ही ले जानेवालेने बिना किसी प्रयोजनके इस बेचारीको हर लिया। पूर्वभवमें इसे ही तुमसे कम राग था,इसलिये तुम भी इसपर कम अनुराग रखते हो।' इस प्रकार अपने अपने पूर्व जन्मोंका वृत्तान्त श्रवण कर अमिततेज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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