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________________ ~ramanna . षष्ठ प्रस्ताव। करो / यत्न करने पर भी यदि कार्यसिद्ध न हो. तो फिर अपना क्या दोष है ? कुछ भी नहीं "इसलिये हे प्राणेश! वस्त्र और आभूषणों की बात तो दूर रहे, तुम्हारे करते मेरी भोजन की इच्छा भी कभी पूरी नहीं हुई। ये वालक खाने के लिये बार-बार रोते रहते हैं। क्या इन्हें देखकर भी तुम्हारे दिल दुःख नहीं होता ? तुमने इस राजाकी सेवासे वैसा कुछ लाभ नहीं ठाया, तो अबके दूसरे राजाकी सेवा कर देखो; क्योंकि - REAL “गन्तव्यं नगरशतं, विज्ञानशतानि शिक्षणीयानि / व नरपतिशतं च सेव्यं, स्थानान्तरितानि भाग्यानि // 1 // " अर्थात्-'"सैकड़ों नगरों की सैर करो, सौ-सौ हुनर सीखो, सौ-सौ की सेवा करो---कहीं न कहीं लाभ हो ही जायेगा, क्योंकि सयोंका भाग्य स्थानान्तरमें जानेसे ही खुलता है। इसलिये तुम्हें सरी जगह अवश्य जाना चाहिये / इससे तम्हें जरूर लाभ पहुँचेगा / " इस प्रकार स्त्रीके समझानेपर व्याघ्र क्षत्रिय सेवावृत्तिके उद्योगमें लगा। प्रायः देखा जाता है, कि गृहस्थोंको अपनी स्त्रीकी बात अवश्य हो माननी पड़ती है। इसके बाद व्याघ्रने परदेश जानेके इरादेसे किसी वणिक्से कहा,–“सेठजी! यदि मेरी स्त्री आपसे कुछ मांगे, तो आप मेरे खाते. नाम लिखकर दे दीजियेगा। मैं राजसेवा कर जब धन कमा लाऊँगा, तब आपकी कौड़ी-कौड़ी चुका दूंगा। आप मेरी स्त्रीकी इच्छा सदा पूरी किया कीजियेगा।" यह सुन, उस वणिक्ने कहा,“बहुत अच्छा / " इसके बाद कुछ राहख़र्च लेकर वह अस्त्र-शस्त्रसे सुसजित हो, शुभमुहूर्तमें घरसे बाहर हुआ। क्रमशः शंखपुर नामक नगरमें पहुँच कर वह सेवकों पर अत्यन्त दया करनेवाले शूरसेन नामक वहाँके राजाकी सेवा करने लगा। राजाने उसे मधुर वचनोंसे बड़ा सुखी किया और वह भी धनकी आशासे उनकी आदर-पूर्वक सेवा . करने लगा। इसी तरह कुछ दिन बीत गये। इस बीच उसने अपने GunrainasunM.. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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