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________________ 382 __ श्रीशान्तिनाथ चरित्र / करने लगा था। उसके दुर्भाग्यसे कुछ ही दिनोंमें उसका धन नष्ट हो गया, वह निर्धनोंमें शिरोमणि हो गया और साथ ही साथ उसे आल. स्यने भी घेर लिया। "अप्लसोऽनुपायवेदी, भाग्यैरत्यन्त झितो यस्तु / सीदति पुरुपत्रिनयं, केवलमिह जगति बहुरत्ने // 1" .. अर्थात्-- "इस जगत्में बहुतेरे रत्न पड़े हुए हैं; तथापि आलस, उद्यम न जाननेवाले, और बदकिस्मतीके मारे हुए ये तीन तरीके लोग दुःखितही रहते हैं।" यही सोचकर एक दिन उसकी पत्नीने उससे कहा, "हे ! तुम निश्चिन्त होकर निरुद्यम की भाँति क्यों बैठे हुए हो ?" उसने का "हे प्रिये ! मैं क्या करूँ ? भाग्यकी खुटाईसे राज-सेवा और खेत दोनों ही उद्यमोंमें मुझे नुकसान ही हाथ आया। उसकी के कहा,-"स्वामी ! यदि तुम भाग्यहीन हो तो भी तुम्हें कोई-न-के। उद्यम करना ही चाहिये। कहा है, कि “उद्यमे नास्ति दारिद्रय, जपतो नास्ति पातकम् / . मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो भयम् // 1 // " अर्थात्--"उद्यम करनेसे दरिद्रता मिट जाती है, जप करने से पाप कट जाता है, मौन रहनेसे लड़ाई बन्द हो जाती है और जगते रहनेसे कोई डर नहीं रहता / " इसलिये आपको उद्यम करनाहो उचित है और भी कहा है, 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी __ देवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति / दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्तया, यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्रः दोषः // 1 // " . अर्थात्--"उद्योग करनेवाले पुरुषसिंहको लक्ष्मी प्राप्त होती / है / 'दैव देगा, तो मिलेगा' ऐसा कहना कायर आलासियोंका काम है। इसलिये देवका आधार छोड़कर अपनी शक्तिके अनसार उधम . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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