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________________ प्रथम प्रस्ताव। प्रातः काल कुबुद्धिसे प्रेरित मंत्री राजाके पास पहुँचा। उस समय उसका चेहरा चिन्तासे काला पड़ गया था। यह देख, राजाने उससे पूछा,-" मन्त्री! आज हर्षके स्थानमें तुम्हारे मुखड़े पर विषाद क्यों छाया हुआ है ? " मंत्रीने कहा, "हे राजन् ! मुझे तो भाग्यके दोपसे हर्षके स्थानमें शोक ही प्राप्त हुआ।" राजाने घबरा कर पूछा,--"क्यों, क्यों, क्या हुआ ?" उसने कहा,"हे स्वामिन् ! मनुष्य मन-ही-मन हर्षसे फूलता हुआ जिस कार्यको करने के लिये उतारू होता है, उस कार्यके महा शत्रुके समान विधाता उसको एकबारगी उलट पुलट कर देता है।" यह उत्तर पा, राजाने फिर बड़े अाग्रहसे मन्त्रीसे उसके दुःखका कारण पूछा। मन्त्रीने एक लम्बी साँस लेकर कहा,"स्वामी ! मेरा भाग्य ही फटा हुआ है। मेरा पुत्र जैसा है यैसा तो आप अपनी आँखों देख ही चुके हैं। अब यह भाग्यका फेर देखिये, कि आपकी कन्याका स्पर्श होते ही, वह कोढ़ी हो गया ! क्या कहूँ ? किसके आगे दुखड़ा रोऊँ ?" . ... यह सुन, राजा भी बड़े दुःखित हुए / वे मन-ही-मन विचार करने लगे," अवश्य ही मेरी यह पुत्री कुलक्षणा है। तभी तो इसके स्पर्श-मात्रसे ही मेरे मन्त्री का पुत्र कोढ़ी हो गया। यह तो ठीक है, कि इस जगत् में सभी अपने-अपने कर्माका फल भोगते हैं ; परन्तु अन्य प्राणी उसके निमित्त भी तो बन जाया करते हैं। इस संसारमें न तो कोई प्राणी किसीको मुख-दुख देनेकी शक्ति रखता है, न हरण करनेकी। जो कोई मुख-दुख भोग करता है, वह अपने कर्मोके फल ही भोगता है / कर्म ही सुख-दुखके कारण हैं / इस लिये हे मन! तुम्हें इस समय इसी मुबुद्धिसे काम लेना चाहिये।" इसी प्रकार सोच-विचार कर राजाने कहा,-'हे मन्त्री !. मैंने तुम्हारे पुत्रको बड़े कष्टमें डाल दिया। यदि मैं तुम्हारे पुत्रके साथ अपनी कन्याका विवाह न करता तो वह इस दुष्ट रोगसे क्यों दुःख पाता।" यह सुन, मंत्रीने कहा,-"महाराज ! आपने तो हितका ही काम किया; फिर इसमें आपका क्या दोष है ? सब मेरे कर्माका ही दोष है।" यह कह, मंत्री तो घर चला गया और उसी दिनसे प्रैलोक्यमंदरी पहले पिता और परिवारवालों की जितनी ही प्यारी थी, उतनी ही अप्रिय होगयी। कोई उससे दो-दो बातें करना भी नहीं चाहता था, उसे भर नजर देखता तक नहीं था / वह अकेले ही अपनी माताके घरके पिछवाड़े एक गुप्तगृहमें रख दी गई। वहाँ पड़ी-पड़ी वह विचार करने लगी,- "मैंने पूर्व जन्ममें ऐसा कौनसा पाप किया था, जिससे मेरे नव विवाहित पति न जाने कहाँ चले गये और मुझे व्यर्थकी बदनामी उठानी Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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