________________ पोहादिव समायाति / मर्कटश्चित्तमंतरा // // प्रजाते. भूपतेः शीर्षे / रोममा न निययो // तावद् रुष्टेन भूपेन / वणिगाकारितः पुरः // 5 // वणिजावाचि राजें / वेणी ते निःमृता न कि // तन्मन्ये मर्कटश्चित्ते / चिंतितो हि जविष्यति // 7 // अयं सत्यं वदन्नस्ति / मया चिंतित एव सः॥ एवं विचिंतयन् राजा / सुप्रसन्नोऽजवत्पुनः // 3 // राजानं राज॥ लोकं च / वंचयामास यो धिया // अमुष्णान्मम सर्वस्वं / वणिजेऽस्मै नमो नमः // 7 // स्वानुजूताः कथास्तिस्र-स्त्रिजिरेवमुदीरिताः। पश्यनिर्वणिजो लोका-नस्तोककपटांबुधी नू // 5 // सर्पण यो जवेद्दष्टो / रजौ सर्प स मन्यते // वह्निना यो जवेदग्धों / फूत्कृत्य स| पिबेज़ालं // 6 // इति तेऽपि त्रयश्चौरा / वणिजिवंचिताः पुरा // स्थिरचित्तं सरलम-प्यमन्यंत स्ववंचकं // 7 // चौरैरालोचितं तेना-स्मासु यत्कपटं कृतं // पातयामः शिरस्यस्य / सन्मुखं धृष्यते हि सः // // एतं कलशमुत्पाट्य / वृश्चिकावलिनिनृतं // दिपामस्तद्गृहे | || येन / खाद्यते सकलाश्च ते // 7 // विमृश्येति त्रिनिश्चौरै-रुत्पाट्य कलशो महान् // स्थि|| रचित्तगृहे दिप्तो / नष्टं चौरैश्च तत्दापात् // ए० // प्रनाते ह्यथ संजाते / स्वखट्वासंनिधा - PP.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust