________________ 275 व / सुतः पंचत्वमाप्तवान् // कर्मणां प्रतिकूलत्वे / सर्वत्र हतिरेव हि // 40 // शाखानिर्विततीनविष्यति दलैस्तेजांसि तिग्माते-रंतर्धास्यति पास्यतीह मधुपश्रेणी रसं कौसुमं // अध्वन्यान् सुखिनीकरिष्यति फलैर्यस्येत्थमाशाजवद् / पूरादेव हहा स मार्गविटपी दग्धो दवार्चिष्मता // 41 // मम विज्ञातसंसार-स्वरूपस्यासुखं तदा // नाकरोत्पुत्रमरणं / दीदाविघ्नपुःखं यथा // 42 // अथोर्ध्वदेहिकं तस्य / कृत्वान्यं राज्यधूर्धरं // सुतं विना नवोद्विमो-उजवं चिंतातुराशयः // 43 // अन्यदा केवलझानी। मिलितो धर्मसागरः // राज्यस्यास्ति हि को योग्य / इति पृष्टो जगाद सः // 4 // पुत्रीलानुमतीजा। हरिषेणनृपात्मजः // नाम्ना सागरदत्तोऽस्य / योग्यो राज्यस्य वर्तते॥ 45 // अथो कुमार साम्राज्य-मिदमा दाय सांप्रतं // कुर्याः प्रवज्याग्रहणे / साहाय्यं प्राज्यविक्रम // 46 // नवतस्ताततुल्यस्या-देशो नो खंड्यते मया // श्त्युत्तरे कुमारेण / दत्ते स प्रीतिमाप्तवान् // 4 // विद्याधरान् समाहूय समस्तान् देवदिन्नराट् // तीर्थोदकानि चानाय्य / स्वासने विनिवेश्य तं // 40 ॥अनिषेकं विनिर्माय / तिलकं च शिरस्तले // देवदिन्नो ददौ राज्यं / विद्याश्च निखिला निजाः // 4 // D - PP.AC. Gunratrasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust