________________ वरित्रं प्रत्येक परं रागातुरत्वेन / तथैव कुरुतेस्म सः॥ आलोकि धनसारेण / रुष्टचित्तेन चिंतितं // 6 // धिगमुं निवपं नृत्यं / पुरात्मानं पुराशयं // अनेन खलु मे जावी / मित्रलेदोऽचिरादपि // // 7 // हेयोऽयमहितो नाग-दष्टांगुष्ठसमो मया // इति ध्यात्वा स निक्षिप्त / उत्क्षिप्य दाश्व वारिधौ // 7 // स पूर्वजग्नपोतस्य / पुर्वपुण्यतरोः फलं // फलकं प्राप्तवानेकं / विवेकमिव संसृतौ // sए // तदाधाराचिरादाप / तीरं नीरनिधेरयं // समीरणेन शीतेनो-तस्थौ संप्राप्तचेतनः // 70 // ज्ञानाकरकुलपतेः / प्रबुब्धो वचनोच्चयैः // धनाकरो विरक्तात्मा। तापसंवतमाददे // 2 // चिरमझानकष्टानि | विविधानि विधाय सः // मृत्वा विद्याधराधीशो। वायुवेगानिधोऽजनि // 2 // श्तो गुणश्रिया ज्ञात्वा / पातितं तं पयोनिधौ // विषादोऽकारि चित्तेऽयं / वराको मत्कृते हतः // 3 // शतधन्या ये न जायते / परेषां घातहेतवे // प्रजवंत्युपकाराय / सर्वेषामपि देहिनां // 4 // अनादीगुणसारस्तां / विषादापन्नमानसां // सोऽचिंतयदियं नूनं / न प्रिया शीलशालिनी // 5 // अन्यथा कथमेतस्मिन् / पासितेऽब्धौ धनाकरे // एषा विषादमापन्ना / तं ध्यायंतीव तिष्ठति // 6 // कुशीलया परासत-चिः || .P.PAC.Gunratnasuri MS Jun Gun Aaradhak Trust