________________ प्रत्येक तत्रैव पपात मूर्छितः // // अहं तृमातुरो ब्राम्य-नातवान् सलिलं क्वचित् // गवेष्य / / || माणं नो किंचित् / प्रायशः प्राप्यतेंगिन्निः // 45 // एकस्य पादपस्याधो-ऽपतं मूर्छितवद्य दा॥ तावत्तत्रैष थायातो / गुणचंडः कुतश्चन // 50 // दुःस्थितं मामयं दृष्ट्वा / सकृपः शीतलं 127 जलं // आनीय पाययामासा-जवं सज्जवपुर्यथा // 51 // परिपक्काम्रवृक्षादेः / पेशलानि फ लान्ययं // अर्पयामास सप्रीति / कारयामास जोजन // 55 // पृष्टलग्नं समायातं / सैन्यं -दैन्यविवर्जितं // अज्ययँह समानीतो / गुणचंद्रो मया सह // 53 // पृष्टः किमनिधानोऽसि / कुतः कुत्र च यास्यति // जुवं ब्राम्यसि केनैवं। ततोऽनेन प्ररूपितं // 54 // क्षितिप्रतिष्टितानाम्नो। नगरात् श्रेष्टिनः सुतः // अहं समुदत्तस्य / गुणचंद्रानिधोऽधुना // 55 // ज्रातुर्गुणधराख्यस्य / शुद्धये जुवमत्रमं // अथ मुंच यथेदे तं / ग्रामारण्यपुरादिषु // 56 // जायसे दुःखहेतु, / रदंस्त्वं सुखकार्यपि // तावन्मया पुनः प्रोक्तं / सुस्थीजव महामते // // 5 // त्रिनिर्विशेषकं // शोधयिष्यामि ते बंधुं / प्रेष्य प्रेष्यान्निजान् जुवि // भ्रातरं मेलयिष्यामि / करिष्यामि सुख तव // 5 // इत्या श्वास्य नरान् दत्वा / परिचर्याकरान् वरान् // || Juan Arad P.P.AC.Gunratnasuri M.S..