________________ चरित्रं प्रत्येक नो पुरे // विशेषेण कथं सिंह। आरोहत्युत्तरां जुवं // 27 // परं कृतिमरुपोऽयं / कोऽपि कोपातुरोऽजवत् // विमृश्येति महीपालः / पृष्टवान् कुटिनीमिति // 20 // नुजंगः संवसन् को ऽस्ति / सांप्रतं तव मंदिरे // साह देशांतरायातो / नरो गुणधरा निधः // 25 // राज्ञोक्तं वि१५६ || प्रियं किंचि-त्तया तस्य कृतं किमु // थाह सा न मया किंचि-चेतसापि विचिंतितं // 30 // ततो गुणधरोऽवोचत् / सिंहरूपो मनुष्यवत् // रेरे कुहिनि पापिष्टे / कनिष्टे पुष्टचेष्टिते // // 31 // अमूल्यं रत्नमेताहक् / हरत्यापि त्वया मम // विप्रियं विहितं नो चे-तदान्यत्किं करिष्यसि // 32 // साधिदेपमिदं वाक्यं / श्रुत्वा नूपतिरब्रवीत् // कपट रे ममाग्रेऽपि / स्फु. टयिष्यति राक्षसि // 33 // गृहीतं यत्त्वया रत्नं / तदत्वा प्रणता जव // दमयस्व स्वयं येन। खन्नावस्थो नवत्यसौ // 34 // नीषणीय भूपेन / भूयस्तर्जितया तया // जीतया रत्नमा. नीय / तस्याग्रे तन्निवेशितं // 35 // अग्रतो रत्नमालोक्य / लोक विस्मयकारकं // स्वजावाव स्थितो जझे। विद्यां गुणधरः स्मरन् // 36 // आगतो दैवयोगेन / गुणचंसो विलोक्य तं // || मनःकुमुदचंडोऽयं / नाता मम किमुत्तमः // 3 // अथवा तत्समाकारो / विपश्चित्कश्चिद- || PP.AC.Gunratnasuri M.S.