________________ परिक 110 प्रत्येकी // 41 // नानजोजनतांबूल-मुख्यां गुणधरस्य सः॥ अकरोत्प्रतिपत्तिं यत्सर्वत्र वर्णम य॑ते // 42 // त्रिंशद्दीनारमात्रं स्वं / मासे मासे समर्पयन् // अरदत्वसमीपे तं / श्रेष्टी सुतमिवादरात् // 43 // अथो चतुषु मासेषु / व्यतीतेषु बताण सः॥ ताताऽज्ञातकुलस्यापि / त्वया मे निर्ममेन किं // 44 // अत्राणस्य मम त्राणं / विहितं जवता बत // श्यंति दिवसान्यत्र / सुख्यस्थां त्वत्प्रसादतः // 45 // त्वं सन्मार्गतरुश्चाहं / पथिको यामि सांप्रतं // न श्रेष्टीति विज्ञप्तः। कथंचित्तं विसृष्टवान् // 46 // तेन अव्येण वस्तूनि / गृहीत्वा चखितस्ततः // संप्राप्तो विजयपुरं / वाणिज्यं तत्र सोऽकरोत् // 4 // तत्रैको वणिगेकांते। कात्युत्करकरवितं // तस्याग्रे दर्शयामास / रत्नमेकं महागुणं // 4 // तद् दृष्ट्वा चिंतितं तेन / विषभूतादिदोषहृत् // कुद्रोपऽवदारिय-विद्रावणविचक्षणं // 45 // श्दं चेबज्यते रत्नं / तदान्यत्किं विलोक्यते // एतदीयमिदं करमा-दुपायलप्स्यते मया // 50 // इति चिंतातुरः सोऽभू-हिबायवदनबविः // सुप्तमूर्छितवत्तस्थौ / निश्चेष्टोऽस्पष्टकष्टनृत् // 55 // तं तथाविध|| मालोक्य / सशंकहृदयो वणिक् // उवाच जोः किमेवं वं / चिंतातुर श्वेदयसे // 55 // || P.P.AC. GunratnasyriM.S.