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________________ P.P.Ad Gurransuri MS संसार-समुद्र को पार करने के लिए धर्म-नौका है। कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु जैसे समग्र पदार्थों को प्रदान करनेवाला धर्म ही है.। मव-भवान्तर में परिभ्रमण करनेवाले पथिक-स्वरूप संसारी जीवों को मार्ग में भा प्रयभूत धर्म ही पाथेय है। धर्म के प्रभाव से सत्पुरुषों को कभी कष्ट नहीं होता। वे संसार में भटकते हुए भी सभी स्थलों पर सुखी रहते हैं। धर्म में लीन व्यक्ति को ग्रह, भत, पिशाच, शाकिनी, सर्प आदि भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचा सकते। यही नहीं ऐसा जीव तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, राजा तथा चरम शरीरी (तद्भव मोक्षगामी) तक होता है। धर्मात्मा पुरुष को समस्त ऐहिक सुख प्राप्त होते हैं। देशदेशान्तरों की वस्तुएँ-जिनका प्राप्त होना दुष्कर है, वह भी धर्म के प्रभाव से स्वतः प्राप्त हो जाती हैं / धर्म जैसा न तो कई मित्र होगा एवं न स्वामी। अतएव सत्पुरुषों को चाहिये कि अपना चित्त धर्म की ओर सदा प्रवृत्त करते रहें। मुनीन्द्र द्वारा धर्म का स्वरुप सुन कर मणिभद्र एवं पूर्णभद्र दोनों सेठ-पुत्रों को हार्दिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने मुनि को नमस्कार कर सम्यक्त्व धारण किया। उन्होंने गृहस्थों के द्वादश प्रकार के व्रत धारण किये। इसके पश्चात् दोनों विचक्षण भ्राता अपने घर लौट आये एवं जीव-दया का पालन करते हुए धर्मपूर्वक रहने लगे। उन्होंने जिन-मन्दिर में अष्ट-दव्य से पजा-प्रभावना की तथा उत्तम पात्रों को चार प्रकार के दान दिये। इस प्रकार उन्होंने पाप कर्मों से विरक्त हो कर अर्थ-कामादि तीनों प्रकार के पुरुषार्थ किये। वे धर्म के प्रभाव से लीलामात्र में प्राप्त होनेवाली भोगोपभोग की सामग्रियों से आनन्दपूर्वक जीवन बिताने लगे। कुछ दिवसों के उपरान्त एक समय वन में पुनः किन्हीं मुनि महाराज का आगमन हुआ। धर्म-भाव से प्रेरित होकर दोनों सेठ-पुत्र मुनि की वन्दना के लिए चले। संयोग से उन्हें रास्ते में एक चाण्डाल एवं एक कुतिया दीख पड़ी। उन्हें देख कर दोनों का हृदय पिघल गया एवं उनके प्रति आकस्मिक प्रीति उत्पन्न हुई। सत्य ही है, अन्तरात्मा का ज्ञान विशद होता है। उसमें स्वयं शभाशम का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। सेठ के ! पुत्रों को देख कर चाण्डाल एवं कुतिया को भी मोह उत्पन्न हुआ। यहाँ तक कि वे परस्पर आलिंगन की इच्छा करने लगे। तब वे चारों मुनिराज के समीप बड़ी शीघ्रता से गये। वहाँ सेठ-पुत्रों ने प्रथम तो नम्रतापूर्वक मुनि को नमस्कार किया। इसके पश्चात् उन्होंने भक्तिपूर्वक मुनिराज से पूछा- 'हे कृपासिन्धु ! यह तो Jun Gun Aaradhak Trust 82
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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