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________________ 81 P.P. Ac Gurratasun MS | अपना राज्यमार पुत्र का सौंप दिया। अनेक वशवतो सामन्त-राजाओं के साथ उसने सर्व प्राणियों का हित करनेवाली जिन-दीक्षा ग्रहण की। मुनिराज के उपदेश तथा राजा की वैराग्य बुद्धि देख कर सेठ समुद्रगुप्त को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह अपने पुत्रों को व्यवसाय सौंप कर परिग्रह त्याग कर दीक्षित हो गया। ___ इसके बाद सेठ समुद्रगुप्त के मणिभद्र एवं पूर्णभद्र नाम के दोनों पुत्रों ने उन मुनिराज को नमस्कार कर कहा-'हे महाराज ! आप ने जिस जिन-दीक्षा का उपदेश दिया है, उसे ग्रहण करने के लिए हम अभी असमर्थ हैं। किन्तु कल्पवृक्ष के समान परम्परापूर्वक मोक्षदायक गृहस्थ-धर्म हमें बतलाइये।' उनके निवेदन पर मुनिराज ने कहा- 'हे श्रेष्ठी पुत्रों ! मैं संक्षेप में गृहस्थ-धर्म का वर्णन करता हूँ। सब ध्यान दे कर सुनो। जो संसार सागर में पतित होनेवाले को हस्तावलम्बन दे कर रक्षा कर लेता है, उसे धर्म कहते हैं। जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझता है, वही धर्मात्मा है। श्रीजिनेन्द्र भगवान के कथानुसार धर्म के दो स्वरूप हैं-प्रथम अनागार-धर्म एवं दूसरा सागार-धर्म। अनागार-धर्म का पालन तपस्वी लोग करते हैं एवं सागार-धम का गृहस्थ। अब हम गृहस्थ-धर्म का वर्णन करते हैं, जो सम्यग्दर्शन के साथ पाँच अणवत एवं सात शीलोंवाला होता है। गृहस्थों को मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका रूप-चार प्रकार के सङ्घको आहार, औषध, शास्त्र एवं अभय दान देना चाहिये। साथ ही सम्यक्त्व-विनाशक मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करना चाहिये। पाँच उदम्बर एवं तीन मकार का त्याग करना श्रावकों का अनिवार्य कर्तव्य होता है / इसके अतिरिक्त किसी प्राणी की निन्दा नहीं करनी चाहिये, उससे बड़ी दुर्गति होती है। विश्वासघात भी पाप का कारण होता है। प्रत्येक मास में 2 चतुर्दशी एवं 2 अष्टमी-इन चार पर्यों के दिन उपवास धारण करना चाहिये। निःशङ्का, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य एवं प्रभावना ऐसे अष्ट अङ्ग सहित चन्द्रमा जैसे निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिये। धर्म रत्न का प्राप्त होना ठीक वैसे ही बड़ा कठिन होता है, जैसे समुद्र में गिरे हुए रत्न की प्राप्ति। मिथ्यात्व के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करना चाहिये एवं सर्वोत्कृष्ट ( सम्यक्त्व) की उपलब्धि करनी चाहिये। मिथ्यात्व से नरक में पतित होना पडता है तथा सम्यक्त्व से स्वर्ग गमन अनिवार्य है। धर्म धारण से माँति-भाँति के मनोज्ञ इन्द्रियजन्य सख मिलते हैं. देवियों की सेवायें प्राप्त होतीण युद्ध में वह कवच के समान रक्षा करता है। दस्तर 81
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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