________________ 76 PPAC Gurransur MS | की हिंसा का त्याग न करना , पंचेन्द्रिय को वश में करना -ये बारह प्रकार की अविरति है। कषाय में स्त्री-कथा, राज-कथा, भोजन-कथा तथा देश-कथा -ये चार विकथाएँ हैं / क्रोध, मान,माया, लोभ-ये चार कषाय तथा इन्द्रियाँ , निद्रा तथा योग- इस प्रकार पन्द्रह प्रमाद हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान तथा संज्वलन के भेद से क्रोध, मान, माया, लोम रूप 16 भेद तथा नौ हास्य, रति, अरति मादि कषाय सब मिल कर 25 कषायें हैं। चार मनोयोग, चार वाग्योग, पाँच काययोग, एक माहारक काययोग तथा एक आहारक मिश्रयोग-कुल 15 योग हैं। ये सब बाह्य के कारण होने से बन्ध स्वरूप हैं। जीव को कर्म बन्धन से मुक्त करानेवाले सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान तथा सम्यकचारित्र ही हैं तथा वे ही मोक्ष के कारण हैं। जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष-इन सप्त तत्वों पर श्रद्धान करना हो सम्यक्त्व है। बिना सम्यक्त्व के न तो किसी की मुक्ति अब तक हुई है एवं न हो भविष्य में आगे होगी। शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से कर्मों का क्षय होता है। इसमें विचार करना पड़ता है कि कार्य भित्र हैं एवं आत्मा भित्र है। कर्म जड़ हैं तथा आत्मा चैतन्य। जिनागम में सम्यकदर्शन के दो भेद कहे गये हैं-प्रथम निसर्गज तथा दूसरा अधिगमज। निसर्गज सम्यक्त्व वह है, जो बिना गुरु आदि के स्वतः होता है तथा अधिगमज वह है, जो उपदेशादि श्रवण करने से होता है। श्रीजिनेन्द्र भगवान ने सम्यक्त्व अन्य तीन प्रकार से भी बतलाये हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व तथा क्षायिक सम्यक्त्व। इस प्रकार विवक्षा से सम्यक्त्व एक प्रकार, दो प्रकार, तीन प्रकार आदि भेद रूप वर्णन किया है। सम्यकज्ञानी उसे कहते हैं, जो नव पदार्थ, सप्त तत्व तथा पुण्य-पाप के स्वरूप ( अन्यून, यथार्थ, अधिकता रहित, विपरीत रहित) को समझे। सम्यज्ञान पाँच प्रकार के हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान। मतिज्ञानावरणी के क्षयोपशम से मतिज्ञान, इस प्रकार अपने-अपने कर्म के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान होते हैं तथा केवलज्ञानावरणो के सर्वथा क्षय से अर्थात् चार घातिया कर्मों का नाश करने से केवलज्ञान होता है। श्री जिनेन्द्र भगवान ने सम्यकचारित्र का वर्णन तेरह प्रकार से किया है-५ समिति, 3 गुप्ति तथा ५महाव्रत, जिसे प्रत्येक प्राणी को ग्रहण करना चाहिये। ये सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र ही मोक्ष के मार्ग हैं। तत्वार्थ की रुचि तथा प्रतीति को सम्यकदर्शन कहते हैं / सत्पुरुषों को सदा स्मरण रखना चाहिये कि देह से चैतन्य आत्मा