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________________ प्राणी को संसार से मुक्त करानेवाली जिन-दीक्षा ग्रहण करूँगा। कारण जब तक जीव मोह के बन्धन में बंधा | रहता है, तब तक उसे दुःख-सुख के कटु-सरस अनुभव या ऊँच-नीच के भेदभाव जन्य विचार उत्पन्न होते हैं। इस जीव को सदा एकाको ही पाप-पुण्य के अनुसार सुख-दुःख भोगना पड़ता है / यह एकाकी ही जन्म | लेता है एवं एकाकी ही मरण को प्राप्त होता है। इसलिये मोह कदापि नहीं करना चाहिये, वही संसार में आवागमन का कारण है / अब मैं आत्म-कल्याण के लिए वीतराग जिन-दीक्षा ग्रहण करूँगा। इसमें किसी प्रकार को बाधा नहीं आनी चाहिये।' इतना कह कर उस प्रवर ब्राह्मण ने अपने कुटुम्बियों से क्षमा-याचना की एवं वहाँ से चल दिया। ___वन में पहुँच कर पूर्व में उस गूंगे ब्राह्मण ने मुनिराज के चरण-कमलों में नमस्कार किया एवं दीक्षा प्रदान करने को प्रार्थना की। उस परम बुद्धिमान ने गुरु की आज्ञा से कई व्रत ग्रहण किये। सभा में उपस्थित अन्य लोगों ने उस ब्राह्मण को जिन-दीक्षा ग्रहण करते हुए देखा, कई सत्पुरुषों को सम्यक्त्व हो गया एवं कितने ही व्यक्तियों ने श्रावक-धर्म अङ्गीकार किया। तात्पर्य यह कि कुछ सत्पुरुषों ने महाव्रत धारण किये, कुछ धर्मानुरागियों ने गृहस्थियों के द्वादश प्रकार व्रत स्वीकार किये, तो कुछ बन्धुओं ने प्रतिदिन जिनेन्द्रपूजन की प्रतिज्ञा को एवं कुछ लोगों ने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया। इस प्रकार एक ओर तो धर्म-धारण का कार्य चल रहा था, वहीं दूसरी ओर कुछ कौतुकी श्रावक प्रवर ब्राह्मण के घर गये। वहाँ से चमड़े की खोली लाकर सब को दिखलाने लगे। उसे देख कर सब को मुनि के वचनों पर विश्वास हो गया। किन्तु उस खोलों को देखते हो अहङ्कारो ब्राह्मण-पुत्रों के मुखमण्डल म्लान हो गये। उनका सारा अभिमान तिरोहित हो गया। उनकी कला-चातुरी समस्त विनष्ट हो गयी। इसके ऊपर सब लोगों की धिक्कार भी सुनने को मिलो। अवसर पाकर वे वहाँ से चल दिये। ___जब वे अपने घर पहुंचे, तो वहीं दूसरा ही काण्ड उपस्थित था। उनके माता-पिता ने क्रोधित हो कर कहा-२ पापी कुपुत्रों ! तुम शास्त्रार्थ में परास्त होकर आये हो, यहाँ से शीघ्र दूर हो जाओ। हम तुम्हारा मुख भी नहीं देखना चाहते। क्या हमने तुम्हें इसीलिये शिक्षा दी थी कि वन में जाकर एक दिगम्बर यति से परास्त हो जाना / रे मूढ़ों ! तुम्हें अध्ययन से लाभ हो क्या हुआ ? तुम्हारे लालन-पालन एवं पठन-पाठन में जो Jun Gun Aaradh
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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