SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ P.PAC Gunun MS 60 है। वे मूर्ख कुटिल एवं मलीन होते है। उन्हें वेद-शास्त्रा का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। तुम उन्हें साधु केसे कहते हो? जो ब्राह्मण कुल में उत्पत्र हो, वेदपाठी बुद्धिमान हो, तरण-तारण में सामर्थ्य रखता हो, वही साधु पदवाला हो सकता है। रे शठ! संसार में हम ही पूज्य हैं। तुम लोग व्यर्थ में दिगम्बर की वन्दना करने जा रहे हो।' मुनि-भक्ति परायण श्रावकों ने उत्तर दिया-'अरे दुष्टों ! तुम स्वयं धर्म-कर्म से रहित हो, स्त्रियों के मोह में फँसे हो, निन्दनीय हो। तुम्हें साधु कहलाने का कौन-सा अधिकार है ? जिनके कमलवत चरणों की धूलि को स्पर्श कर सत्पुरुषों ने अपना जीवन सार्थक किया है, उनका स्वर्गादिक सुखों का उपभोग कर परम्परा के अनुसार मोक्ष प्राप्त होना सुनिश्चित है। वही सच्चे साधु एवं जगत्पूज्य हो सकते हैं। ऐसे साधु ही स्वयं मुक्त होते हैं एवं दूसरों को मुक्त कराते हैं; जो परोपकारी, लोकपरायण एवं कार्य रहित हैं। पंचेन्द्रियों में मासक्त ब्राह्मण कदापि साधु के पवित्र आसन पर नहीं विराजमान किये जा सकते / हे द्विज-पुत्रों ! हमें तो आश्चर्य होता है कि मुनीश्वर को निन्दा करते हुए तुम्हारी जिह्वा क्यों न विलग हो गयी ?' श्रावकों के ऐसे कठोर वचनों से द्विजपुत्रों को उग्र क्रोध हो पाया। उनकी आँखें रक्त वर्ण की हो गयीं। वे आवेश में आ कर कहने लगे-'इन मूढ़मति श्रावकों से वाद-विवाद करने में भला क्या लाभ? अब तो हम जाकर उस दिगम्बर मुनि से ही वाद-विवाद करेंगे, जो इनको बहकाता है। ऐसा कहते हुए वे ब्राह्मण-पुत्र द्वय घर की ओर लौटे, जब कि श्रावकवृन्द वन की ओर गमन कर गये। घर पहुँच कर ब्राह्मण-पुत्रों ने अपने माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। वे कहने लगे- 'हे तात ! नगर के निकट उपवन में एक महाधर्त्त दिगम्बर वेशधारी आया है। आप हमें माज्ञा दें कि जा कर उससे वाद-विवाद कर सकें। कारण यदि वह वेदों का शत्रु दो-तीन दिन भी उपवन में रहेगा, तो अनेक सामान्य प्रजाजन हमारे शास्त्रोक्त धर्म से विमुख हो जायेंगे। वह जैन मत का प्रचारक है, अतः वेद-शास्त्रों के विरुद्ध प्रचार करेगा। अतएव हम चाहते हैं कि इससे पूर्व ही वेद-शास्त्र के बल पर शास्त्रार्थ में उसे परास्त कर देवें, जिससे वह यहाँ से तत्काल पलायन कर जाये।' उनके माता-पिता ने कहा- 'हे पुत्रों ! तुम्हारा वन में जाना कदापि उचित नहीं, कारण ये साधुगण बड़े अनुभवी एवं चतुर होते हैं / देश-विदेशों में भ्रमण करने से उनका ज्ञान विशद हो जाता है। वे शास्त्रगामी होने के कारण शास्त्रार्थ में बड़े निपुण होते हैं एवं अहर्निश
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy