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________________ P.P.ABah # परमानन्द स्वरूप कामदेव की उत्पत्ति सूचक छः स्वप्न दख। प्रथम स्वप्न में रुक्मिणी ने देखा कि वह राजसी वैभव के संग विमान में बारूढ़ होकर बाकाश-मार्ग में क्रीड़ा युक्त सञ्चार कर रही है। द्वितीय स्वप्न में इन्द्र के ऐरावत के सदृश गजराज को सम्मुख बैठे हुए देखा, जो रह-रह कर चिंघाड़ उठता था। तृतीय स्वप्न में || 38 उदयाचल पर सूर्य को उदय होते हुए तथा कमलों को विकसित करते हुए देखा। चतुर्थ स्वप्न में निर्धम प्रज्वलित || अग्नि देखी। पञ्चम स्वप्न में चन्द्रमा एवं षष्ठ स्वप्न में गरजता (लहराता) हुआ समुद्र देखा। स्वप्न देखने के || अनन्तर बन्दीजनों की विरुदावली सुन कर रुक्मिणी की तंद्रा भङ्ग हुई। वह शैय्या त्याग कर उठी। विधिपूर्वक स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो कर वह अपने पतिदेव श्रीकृष्ण के समीप बायी। उसने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया एवं उनकी आज्ञा के अनुसार वाम पाश्र्व में सिंहासन पर बासीन हो गई। बागमन का कारण पूछने पर रुक्मिणी ने निवेदन किया- 'हे नाथ! मैं ने रात्रि के तृतीय प्रहर में सूर्योदय के पूर्व कई स्वप्न देखे हैं। उन्हीं स्वप्नों के फल सुनने की अभिलाषा से मैं आप की सेवा में उपस्थित हुई हूँ।' ऐसा कह कर रुक्मिणी ने स्वप्नों का आद्योपान्त विवरण कह सुनाया। ___समस्त वृत्तान्त सुन कर श्रीकृष्ण को अतीव प्रसन्नता हुई। उन्होंने तत्काल रुक्मिणी को उनके फलार्थ सुना दिये, जिनका तात्पर्य यह था कि उसके आकाशगामी एवं मोक्षगामी पुत्र उत्पत्र होगा। गुणवती रुक्मिणी अपने पति द्वारा भविष्य-फल सुन कर प्रसन्न हुई एवं अपने महल को लौट आयी। उसे ऐसा विश्वास हुआ कि मानो पुत्र उसके अङ्क में ही आ गया हो। राजा मधु का जीव जो तप के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग में गया था, वह रुक्मिणी के गर्भ में भा गया। यह पुण्य का प्रभाव ही था कि चिरकाल तक स्वर्गोपम सुख भोगने के लिए वह रुक्मिणी के गर्भ का भूषण बना। सत्यभामा ने भी कुछ ऐसे ही स्वप्न देखे थे। श्रीकृष्ण ने उसे भी उनका मङ्गल फल सनाया। एक कल्पवासी जीव ने स्वर्ग से भाकर सत्यभामा के गर्भ में प्रवेश किया था। गर्भावस्था में सत्यभामा एवं रुक्मिणी के अङ्गों की जो चेष्टाएँ हुईं, उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं। दोनों रानियों के नेत्र निर्मल हो गये। देहयष्टि का वर्ण क्रमशः पीत होने लगा एवं उरोजों के अग्रभाग में कालिमा आ गयी, उदर की स्थूलता बढ़ने लगी, हलन-चलन में कष्ट होने लगा। त्रिवलिका भङ्ग हो गयी थी, पर मुख का तेज बढ़ने लगा था-ऐसे ही मित्र-मित्र विकार उत्पन्न हुए। इनके संग हो उन्हें कई दोहद Jun Gun Aaracha
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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