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________________ PPAC Gunun MS हैं। मेरा भ्राता नागपाश में बँधा हुआ है, आप कृपया उसे मुक्त कर अभयदान दें।' श्रीकृष्ण ने सहास्य रूप्यकुमार को मुक्त कर दिया एवं उससे कहा-'तुम अब हमारे स्वजन हो। मैं आशा करता हूँ कि हमारे प्रति तुम्हारे स्नेह की भावना दृढ़ रहेगी एवं हमारा परस्पर आवागमन स्थापित होगा। यह सदा स्मरण रहे कि रुक्मिणी तुम्हारी प्रिय भगिनी है। अतः परस्पर मिलते-जुलते रहना।' किन्तु अपनी पराजय से खिन्न | रूप्यकुमार लज्जावश मौन रहा एवं नतशिर होकर उसने अपने नगर की ओर प्रस्थान किया। विजयी श्रीकृष्ण एवं बलदेव ने अपना रथ द्वारिकापुरी की ओर मोड़ा। बलदेव प्रसन्न चित्त होकर रथ का सञ्चालन कर रहे थे। रुक्मिणी की प्राप्ति से श्रीकृष्ण को जो अतीव प्रसन्नता हो रही थी, वह वर्णनातीत थी। वे मन-ही-मन कृतकृत्य हो रहे थे। दोनों को मनोवांछित पात्र प्राप्त हुए थे। वे विजयी वीर परस्पर वार्तालाप करने लगे। आचार्य का कहना है कि जिन श्रीकृष्ण ने प्रबल शत्रुदल को परास्त कर राजा भीष्म की पुत्री रुक्मिणी प्राप्त की, उनके बल-विक्रम का वर्णन भला कौन कर सकता है ? वे मार्ग में विभिन्न रमणीक स्थलों की नैसर्गिक सुषमा का अवलोकन करते हुए परस्पर मनोविनोद करते-करते रैवतक पर्वत पर जा पहुँचे। उस पर्वत को मनोरमता देख कर रुक्मिणी बड़ी जानन्दित हुई। वृक्ष एवं लताओं से सज्जित नन्दन सदृश प्रतीत होनेवाले उस वन में बलदेव ने श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का पाणिग्रहण सम्पन्न करवाया। वह वन उस समय से ही 'रुक्मिणी-वन' के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। वस्तुतः महान् पुरुषों के संसर्ग से किस में बड़प्पन नहीं आ जाता? कोई भी ग्राम अथवा वन हो वह महापुरुषों के आगमन से पुण्य-भूमि बन जाते हैं। वह सुरम्य वन ही श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी की क्रीड़ा-स्थली बन गया। श्रीकृष्ण अपनी नवोढ़ा पत्नी एवं भ्राता बलदेव के संग उस वन को निवास मान कर कुछ काल वहाँ ठहर गये। . किंतु द्वारिकापुरी के नागरिकों को ज्ञात हो गया कि श्रीकृष्ण प्रबल शत्रु-सैन्य को परास्त कर रुक्मिणी का हरण कर लाये हैं। वे इस समय बलदेव के साथ रेवतक पर्वत पर निवास कर रहे हैं। इस शुभ समाचार से सर्वत्र उल्लास का सञ्चार हुआ। स्वागत हेतु तोरणों से नगर को सुसज्जित किया गया, मार्ग में पुष्प बिछाये गये एवं चन्दन जल का छिड़काव हुआ। इस तरह नगर को सजा कर श्रीकृष्ण के कुटुम्बी, स्वजन तथा प्रजाजन भांति-भांति के वस्त्राभषण पहिन कर चारणों के साथ स्वागत के लिए गये। उन्होंने बडे उत्साह से prn
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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