SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PP Ad Gurransuri MS / कुमार ने क्रम से युवावस्था में पदार्पण किया। किन्तु युवावस्था में उसे विकार उत्पत्र नहीं हुआ। वह अल्पकाल में ही शास्त्रों में निपुण हो गया। उसकी कला-कुशलता एवं वीरता अमिमान करने के योग्य हुई। जो शत्रु भी अपने प्रचण्ड सैन्य बल के साथ राजा कालसम्बर पर बाक्रमण करते थे, उनसे प्रद्युम्न स्वयं युद्ध करता एवं 207 परास्त कर भगा देता था। उसे ये सारी शक्तियाँ पूर्व-भव के पुण्य से प्राप्त हुई थीं। उसने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर उज्ज्वल कीर्ति का उपार्जन किया। तत्पश्चात् एक विशाल सेना लेकर वह दिग्विजय के लिए निकल पड़ा। संग्राम में उसने प्रचण्ड सेनाओं के अधीश्वर अनेक विद्याधर नरेशों को परास्त कर दिया। दिग्विजय प्राप्त कर अपार विभूति के साथ कुमार प्रद्युम्न अपने निवास को लौटा। जब राजा कालसम्बर को उसके आगमन की सूचना मिली, तो उसने मन्त्रियों को आज्ञा दे कर सम्पूर्ण नगर को तोरणादि से सजाया एवं विराट महोत्सव के साथ कुमार प्रद्युम्न ने नगर में प्रवेश किया। उसने श्रद्धापूर्वक अपने पिता का चरण स्पर्श किया। उस समय अपने विजयी पुत्र को देख कर राजा कालसम्वर के मानन्द की सीमा न रही। उसने मन में विचार किया- 'यद्यपि मैं ने प्रद्युम्न को युवराज पद दे दिया है, किन्तु यह रहस्य अभी गोपनीय है। अतएव | मैं सर्वसाधारण के सामने उसे युवराज पद प्रदान करूंगा।' ऐसा विचार कर राजा कालसम्बर ने शुभ मुहूत्तं / / में देश-देशान्तरों के राजाओं को आमन्त्रित कर सब के समक्ष कुमार प्रद्युम्न को सम्बोधित कर कहा'हे प्रिय पुत्र ! मेरी घोषणा को ध्यानपूर्वक सुनो। जिस समय तू वन में अपनी माता के गूढ़ गर्भ से उत्पन्न हुआ था, उसी समय मैं ने तुझे युवराज पद प्रदान कर दिया था। किन्तु यह रहस्य अब तक गोपनीय ही था। इसलिये आज मैं सर्वसाधारण के समक्ष तुझे युवराज पद प्रदान करता हूँ। इसे स्वीकार कर लेने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।' मला, राज्य किसे प्रिय नहीं होता? इस महोत्सव की खुशी में राजा कालसम्बर ने याचकों को मुक्त हस्त दान दिया एवं स्वजनों-परिजनों के मनोरथ पूर्ण किये। कुमार प्रद्युम्न की कीर्ति चतुर्दिक विकीर्ण होने लगी। समस्त नगर में उसी की चर्चा होने लगी। 207 रानी कनकमाला के अतिरिक्त राजा कालसम्वर की अन्य पाँच सौ रानियाँ भी थों एवं उनसे पञ्च-शतक विद्या-विशारद पुत्र उत्पन्न हुए थे। अपनी-अपनी माता को प्रातःकाल प्रणाम करना उनका दैनिक कृत्य था। एक दिन उनकी माताओं ने अपने पुत्रों पर क्रोधित होकर कहा-'रे शक्तिहीन कुपुत्रों ! तुम्हारे होने, न होने Jun Gun A rt
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy