SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ OROSodaedessodesdesses श्रीजयशेखरसूरिविरचितं श्रीनलदमयन्तीचरित्रम् NOTESOPANBRUARRINga808000 KF देवोऽहनस्ति चेन्नित्यं, प्रासाद इव मे हदि। ततो राक्षसि नासि त्वं, अश्यतां ते मनोरथैः // 47 // अन्वय:- यथा प्रासादे अर्हन् देवः अस्ति तथा मे हदि नित्यम् अर्हन्देवः अस्ति चेत् ततः हे राक्षसि। त्वं न असि | ते मनोरथैः ध्रश्यताम् // 1470 // विवरणम् :- यथा प्रासादे प्रन्दिरे अर्हन् देवः तथा मे मम हदि मनसि नित्यं प्रतिक्षणम् अर्हन्देव: अस्ति। तत:हे राक्षसि। त्वं न असि। तेमनोरथैः अश्यतां नश्यताम् // 470 // F F सरलार्य :- यथा देवालये अर्हन देवः अस्ति तथा मम मनसि नित्यम् अर्हनदेवः अस्ति। ततः तर्हि तव मनोरथैः नश्यताम् / / 470 / / ગુજરાતી:- જેમ જિનમંદીરમાં, તેમ મારા હૃદયમાં જે હમેશા શ્રી અરિહંતપ્રભુ વસતા હોય, તો તે રાક્ષસી! અહીં તારી હાજરી आनेता मनोरथो नयागा.॥४७०॥ हिन्दी :- जैसे जिनमंदिर में, वैसे मेरे हृदय में अगर हमेशा श्री अरिहंतप्रभु निवास करते हो तो हे राक्षसी / यहाँ तेरी उपस्थिति न हो और तेरी इच्छा नष्ट हो! // 470 // मराठी :- श्री अरिहंत भगवान जिनमंदिराप्रमाणे माझ्या हृदयात निवास करीत असतील तर येथे तुझे अस्तित्व नसावे. तुझे मनोरथ नष्ट होवोत. // 470 / / F English :- And if the Lord Arihant has placed himself in her heart due to her profuse devotion to him just as it is in the Jain temple then let this ogress dissappear from here and let her desire be ruined. G
SR No.036462
Book TitleNal Damayanti Charitrayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri, Sarvodaysagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size93 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy