________________ SHOPRABBosseexstore श्रीजयशेखरसूरिविरचितं श्रीनलदमयन्तीचरित्रम् BRestaTARTINATISHTANTRASENA अथोचे खड्गमाधत्स्च, स्वन्निधिफलं सखे॥ किं कृपालुरिवासि त्वम्, यदद्यापि विलंबसे // 268 // अन्वय:- अथ खड्गम् ऊचे-सखे / स्वसन्निधिफलम् आधत्स्व / त्वं किं कृपालुः इव असि / यद् अधापि विलम्बसे॥२६॥ विवरणम :- अथ अनत्तरंखड्गम् असिम् ऊचे अवोचत् सखे। मित्र | स्वस्य सन्निधि: सान्निध्यं समीपता स्वसन्निधिः स्वसन्निधेः फलं स्वसन्निधिफलम् आधत्स्व गृहाण। त्वं किं कुपालु: दयालुः इव असि। यद् अद्यापि अधुना अपि विलम्बसे // 268 // ' सरलार्थ :- अथ असिम् अवोचत् सखे / स्वसन्निधिफलं गृहाण / त्वं किं दयालु: इव असि / यद् अद्यापि विलम्बसे // 268 // ગજરાતી :- પછી નલરાજા પોતાની તલવારને કહેવા લાગ્યો કે, અરે મિત્ર! તારી નજીકમાં રહેલાં ફલનો તું સ્વીકાર કરી તું દયાળની પેઠે કેમ બેઠો છે? હજુ પણ (આ કાર્ય માટે વિલંબ કર્યા) કેમ કરે છે? 268 हिन्दी.. फिरनलराजाखुद की तलवार से कहने लगा कि, अरे साथी। तेरे नजदीक में रखे हुए फल कोतूस्वीकार कर? तू इस तरह क्यों बैठा है? और इस कार्य के लिये और भी विलंब क्यों कर रहा है ?||268 // OFFEESEE से.. नंतर नलराजा आपल्या खगास म्हणाला- मित्रा। स्वत:च्या सानिध्याचे फळ धारण कर. तू काय कपाल् माणसासारखा आहेस की, अजूनही विलंब करीत आहेस. // 268 // alish - Then Nal asked his sword (when he finds that he cannot bring himself to do the required work) as to why it is not able to accept the fruit which is close to it. P.P.AC.GunratnasuriM.S R eppensivemseveral 238 engvegsew8TBUSBISWWBABVARANGERBS8O5d