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________________ -9. 21. 18] हिन्दी अनुवाद हृदयसे चातुर्थ उपवासको ग्रहण करे। मन, वचन, काय इन तीनों प्रकारोंसे किसो सांसारिक काम-काजको न स्वयं करे न अनुमोदन करे और न किसी अन्य द्वारा करावे / अति कटु, कठोर व क्रूर वचन भी न बोले / गुरुके चरणोंके समीप बैठकर धर्म-सम्बन्धी उपदेश सुने जिसमें निस्सार संसारके दुःखोंका यथार्थ स्वरूप बतलाया गया हो, उन्हीं स्वाध्याय और ध्यानरूपी अग्नि द्वारा तपाये हुए गुरुजनोंके समीप संस्तार शैय्यापर हो उस रात्रि शयन करे। फिर सूर्यके उदित होने पर उस संस्तारका शोधन करे कि कहीं शयनसे द्वीन्द्रियादि छोटे जीवोंका घात न हो। उस दिन वह दिन भर गृहवास त्यागकर तथा मतिभावके गुणोंमें स्थिर होता हुआ जिनमन्दिरमें ही रहे। उस दिन वह नख काटना, आँखोंमें अंजन लगाना आदि कार्य तथा नये वस्त्र व पुष्पमाला धारण करना, मालिश करना आदि शरीर संस्कार छोड़ दे। न तो वह गान्धर्व अर्थात् संगीत सुने और न खेल-तमाशा देखे / स्त्री-कथा, राज-कथा आदि राग-द्वेष उत्पादक किस्सा-कहानी न सुने और न कहे। फिर प्रातःकाल होनेपर नित्य कर्मसे शुद्ध होकर कामरूपी शत्रु मृगके व्याध अर्थात् वीतराग जिनेन्द्र देवकी भले प्रकार मन, वचन, कायसे वन्दना करके दो बार नमन, चार बार शिरसे नमस्कार तथा बारह आवर्तरूप कृति कर्म करे। तथा बत्तीस अतिचाररूपी दोषोंका निवारण करे। कायोत्सर्ग सम्बन्धी बत्तीस दोषोंको जानता हुआ वह भव्य गुण-दोषोंकी भावना करता हुआ उनका परिहार करे। फिर सन्तोष भावसे अपने घर जाकर स्नान कर धोये हए वस्त्र अपनी देह पर धारण करे और गृहस्थ बनकर पुनः अपने गृह-द्वार पर प्रतीक्षा करे / तथा गुणशाली उत्तम पात्रको आते हुए देखकर उसकी पडिगाहना करे। मध्याह्नके समय अपने घरके आंगन में आये हुए मुनिकी वन्दना कर उन्हें लेके एवं अपनी शक्ति अनुसार अच्छी भक्ति पूर्वक उन्हें शुद्ध आहारका दान देवे // 20 // 21. आहारादि दानविधि घर आने पर उन भव्यजनोंमें चन्द्रके समान श्रेष्ठ मुनिराजको नमस्कार करके घरके भीतर ले जाकर चौक पर खड़ा करना चाहिए। फिर शीघ्र ही विधिपूर्वक उनके चरणोंकी पूजाकर उन त्रिलोकके महापुरुषको पुनः नमन करना चाहिए। तत्पश्चात् भोजनके कवल ऊंचे उठाकर स्वयं उनके हाथमें देना चाहिए। भोजन मुनियोंके योग्य हो। सचित्त वस्तुका आहार मुनियोंके योग्य नहीं होता। आहारदाता भव्य मुनिको अशुद्ध व बीजसहित कोई आहार न दे। शुद्ध भोजन देकर व सन्तोष मानकर मुनिके साथ पीछे-पीछे अपने घरके आँगन तक जावे जैसा कि जैन आगममें वर्णन किया गया है / फिर अपने पुत्र व स्त्री तथा परिजनों सहित सबको भोजन करावे / तथा अपनी गाय-भैंसोंको उनके चारा-घासमें मिश्रित कर खिलावे-पिलावे। इस प्रकार सबको आहार देकर विशेष सन्तोष धारण करता हुआ वह गहस्थ स्वयं भोजन करने में P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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