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________________ -9, 15.7] हिन्दी अनुवाद 157 लोक और आलोकका अवलोकन करते हैं। ऐसे ही केवलज्ञानी परमेष्ठियोंने सूक्ष्म दूरस्थ तथा अन्तरित (तिरोहित ) वस्तुओंका साक्षात् दर्शनकर लोगोंको त्रिभुवनका स्वरूप समझाया है। उन्होंने ही समस्त दोषोंसे निर्मुक्त देवका स्वरूप बतलाया है तथा जोवके सकल और निष्कल स्वरूपका उपदेश दिया है / सकल देव अरहन्त भट्टारक हैं और निष्कल देव हैं अशरीरी सिद्ध। इस जगत्में अहिंसा धर्म ही श्रेष्ठ है और पवित्र तीर्थ वे ही हैं जहां मुनीन्द्रोंका वास रहा है तथा हे सुन्दर, मोक्षका मार्ग दर्शन, ज्ञान और चरित्र इन तोनको ही जानो // 13 // 14. उपदेशको समाप्ति व नागकुमारका धर्म ग्रहण जो हिंसा और तृष्णासे मुक्त नहीं है वह दीक्षा और मोक्षका क्या उपदेश देगा ? ज्ञान और मोक्षकी बातें करना उसे क्या शोभा देगा जो स्वयं ही कामिनियोंके कटाक्षोंका शिकार हो जाता है ? जिस मतके अनुसार गुणोंके क्षयसे मोक्षकी उत्पत्ति मानी गयी है उसके अनुसार तो उस अवस्थामें जीवका विनाश ही माना जायेगा। एक अन्य मतके अनुसार संसार ( जीवकी जन्म-मरण परम्परा) कभी समाप्त नहीं होता। उसका हरण और करण अर्थात् क्षय और उत्पत्ति रूप सामर्थ्य चिरस्थायी है। एक और अन्य मतानुसार मोक्षशून्य रूप है तथा अन्य एक मतसे आत्मा गगन रूप है। और उसका आकाशमें विलीन हो जाना ही मोक्ष है। एक अन्य मत है कि काया रहित मोक्ष होगा ही क्या? जो यह मानता है कि देह ही जीव है, देहसे भिन्न जीव कुछ नहीं है, वह सुनय और दुर्नयका भेद ही कैसे जानता है ? जिसका यह मत है कि जो कुछ इन्द्रिय प्रत्यक्ष है वही सत्य है ( अन्य सब असत्य ) उस मत से आगे होनेवाली बातें कैसे जानी जा सकती हैं ? चरमशरीरी (तद्भव मोक्षगामी) का आकार तो देखा गया है विशेष अर्थात् अनन्त दर्शन और अनंत ज्ञान भी लक्ष्य में आया है एवं मोक्षका विधान महाज्ञानी सत्पुरुषोंने किया है। तथा उसका परीक्षण भी कितने ही विद्वानों द्वारा किया जा चुका है। इस प्रकार अपने गुरुके वचनको सुनकर नागकुमारने उस परम धर्मको स्वीकार कर लिया तथा जन्म, जरा व मृत्युकी पीडाओंका हरण करने वाले ज्ञानके लाभको सभीने प्राप्त किया // 14 // 15. नागकुमारका अपने प्रेमके सम्बन्धमें प्रश्न जिस प्रकार वसन्त हरी-भरी वनपंक्ति द्वारा प्रकट होता है, भ्रमर फूली हुई चमेलीपर गुनगुनाने लगता है, विद्वान् पाण्डित्यपूर्ण बुद्धिसे प्रकट हो जाता है और पर्वत गिरिनदीके रूपमें बह निकलता है उसी प्रकार नागकुमार बोल उठा / हे मुनिराज, मैं लक्ष्मीमतीके प्रेमसे अन्धा हो रहा हूँ। बताइए मेरे इस स्नेहका सम्बन्ध (पूर्व कारण ) क्या है ? इसपर महर्षि बोले-इसी जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्रवर्ती सुन्दर नगर वीतशोकपुरमें एक धनदत्त नामक वणिक् रहता था। उसकी पत्नीका नाम था धनश्री / वह वणिकोंमें श्रेष्ठ तथा धनवान् था। उसका पुत्र था नागदत्त जो कामदेवके समान सुन्दर होता हआ स्त्रियोंके सौन्दर्यमदका मर्दन करनेवाला था। उसी नगरमें दूसरा वणिकपति था वसुदत्त जिसकी पत्नीका नाम था वसुमती। वे दोनों प्रेम पूर्वक रहते P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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