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________________ * -9, 13.9] हिन्दी अनुवाद 255 वितंडावाद मात्र है। इसी प्रकार यह लोक कणाद, कपिल, सुगत ( बुद्ध ) तथा द्विजशिष्य ( चार्वाकं ) जैसे भिन्नमतोंके आदि उपदेशकों द्वारा भ्रान्तिमें डाला गया है। इनमें अपनी मतिको कदापि नहीं उलझाना चाहिए तथा मिथ्यामार्गसे कभी नहीं भटकना चाहिए। यथार्थतः यह आकाश अनादि, अनन्त व असीम है एवं लोक और उसका संस्थान ( आकार ) भी अनादि है। धर्म ( उत्तम क्षमादि रूपसे ) दश प्रकार तथा ( मनि, गहस्थके भेदसे ) दो प्रकारका है। जिसमें तप और दान क्रियाओं की प्रधानता है / यह धर्म तथा उसकी परम्परा भी अनादि है। संसारी जीव द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप प्राण धारण करते हैं तथा उनकी (देव, नरक, मनुष्य व तियच ) ये चारों गतियाँ होती हैं। इनके अतिरिक्त जो सिद्धरूप पाँचवीं गति है वह शुद्ध केवलज्ञानी शाश्वत गुणोंके धारक सिद्धोंकी होती है // 11 // 12. सच्चा धर्म पंचम अर्थात् सिद्धगति को प्राप्त जीवोंकी राशि अनादि-अनन्त है। किन्तु चारगति रूप गहन वनमें भ्रमण करने वाला जीव अन्यान्य जन्म ग्रहण करता व अन्यान्य शरीरोंको छोड़ता रहता है तथापि जिन जीवोंको गुरुके चरणोंका संयोग मिल जाता है वे धर्मोपदेश सुनते हैं तथा उनके कषायोंका उपशमन हो जाता है / वे सोलह भावनाओंको भी भाने लगते हैं। उन्हें विशुद्ध सम्यक्त्वको भी प्राप्ति हो जाती है। वे अष्ट मूलगुणरूपी समद्धि भी प्राप्त कर लेते हैं। और सम्यक्ज्ञान भी तथा संवेगादि भावनाओंको नित्य धारण करते हैं। देवमूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता, व गुरुमूढ़ता इन तीन मूढ़ताओं से मुक्त होकर एवं जाति, कुल आदि सम्बन्धी अष्ट मदोंसे रहित हो कुदेवों व कुगुरुओंकी सेवामें न पड़कर तथा कुशास्त्र व कुश्रुतिके पढ़ने वालोंकी संगति न कर मिथ्यालिंगधारी तपस्वियों व उनके सेवक जनोंका परित्याग कर जो उक्त छहों अनायतनोंकी सेवा नहीं करते व साधर्मी मनुष्योंसे वात्सल्य एवं आदर भाव रखते हैं उन्हें ही शुद्ध सम्यक् दृष्टि मनुष्य जानो। जिन जीवोंने शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि सम्यक्त्वके दोषोंको त्यागकर शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण कर लिया उन्होंने ही तीर्थंकर बनने की योग्यता अर्जित कर ली // 12 / / 13. सच्चे ज्ञान व चरित्र की प्राप्ति क्रोध लोभ और मोहकी गतिका छेदनकर तथा घोर प्रचुर आनन्दरूपी अन्धकारको भेदकर अनशन आदि बारह प्रकारके तपका आचरणकर एवं श्रेष्ठ पण्डित मरणसे मृत्युको प्राप्त हो ( जीव स्वर्गगामी होता है ) वहाँ वह इन्द्र व प्रतीन्द्र एवं अहमिन्द्र होकर चोखे अर्थात् शुद्ध देवगतिके सुखोंका उपभोग कर वह परमज्ञानी परमेष्ठीको नमनकर आयुके अन्त में अपने दिव्य शरीरका त्याग करता है। फिर वह अढाई द्वीपोंके पाँच भरत, पांच विदेह और पाँच ऐरावत इन पन्द्रह क्षेत्रों में वे राजकुल रूपी आकाशके सूर्य होकर उत्पन्न होते हैं। उनका जन्म अतिशयोंसे युक्त होता है। वे सभी शान्त स्वभावी परमेश्वर होते हैं। वे पृथ्वीको धारण करने वाले मेरुके समान धैर्यवान् तथा हाथीकी सूड़के समान दोघंबाहु अतुल महाबलशाली जिनेन्द्र होते हैं। वे राजा होकर पृथ्वीका भोग करते हैं अथवा राजा होनेसे पूर्व ही राजकुमारावस्थामें ही दीक्षा लेकर मुनि चरित्रके पालनमें अपनेको नियोजित कर लेते हैं / वे विशुद्ध केवलज्ञान प्राप्त करके समस्त P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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