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________________ 149 -9. 6. 11] हिन्दी अनुवाद मुनिने कहा-तुम्हें धर्मबुद्धि प्राप्त हो। इसपर नागकुमारने मुसकराकर कहा-हे देव, मुझे धर्मका ज्ञान नहीं है। मैं तो मोहके अन्धकारसे आच्छादित हूँ॥४॥ 5. मुनिका उपदेश, क्षणिकवादको आलोचना मुनिराज कहने लगे-मोह नहीं करना चाहिए। मोहसे ज्ञान होते हुए भी ढक जाता है। मोहसे मिथ्या दर्शनका प्रसार होता है। एक (बुद्ध ) द्वारा जगत् क्षणविध्वंसी कहा गया है जिसकी एक भी वासना नष्ट न हो जाय उस जीवकी जिनागममें कैसे रुचि हो सकती है ? भ्रान्ति से भ्रान्तिको कैसे दूर किया जा सकता है ? इस मूर्खता पर मुझे हंसी आती है। वस्त्र धारण करता है और भोजन भी करता है फिर भी सर्वज्ञ हो सकता है, ऐसा कहनेवालेको लज्जा नहीं आती, जहाँ-जहाँ बहुतसे परमाणु मिलते हैं तहां-तहाँ जगमें घट, पट व वृक्षादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं। क्षणविध्वंसवादीके मतसे ज्ञान भी एक संयोगजन्य वस्तु है। तब तो संयोग नष्ट होने पर ज्ञानीको भी लोकके पदार्थ दिखाई नहीं देंगे। यदि क्षणविनाशी पदार्थों में अविच्छिन्न कारण कार्यरूप धारा-प्रवाह माना जाय तो गौके विनष्ट हो जानेपर दूध कहाँसे दुहा जाता है ? दोपकके क्षय हो जानेपर अंजनकी प्राप्ति कहाँसे होती है ? तत्त्वोंका यथार्थ निरूपण तो वीतराग, नेमि तीर्थकरने किया है। यदि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्तके अनुसार कहा जाय कि क्षण-क्षणमें अन्यअन्य जीव उत्पन्न होता रहता है तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो जीव घरसे बाहर जाता है वही घर कैसे लौटता है ? जो वस्तु एकने रखी उसे दूसरा नहीं जान सकता। शून्यवादी भी इसका क्या व्याख्यान करता है ? यदि वह जगत्में समस्त शून्यका ही विधान करता है तो उसके पंचेन्द्रिय दण्डन, चीवरधारण, व्रतपालन, सातघड़ी दिन रहते भोजन तथा सिरका मुण्डन कैसे होता है ? // 5 // 6. शैव्य मान्यताओंको आलोचना पृथ्वी ब्रह्म है, पानी लक्ष्मीपति विष्णु, अग्नि रुद्र, पवन ईश्वर है तथा आकाश शिव है ऐसा कौल मतवादीका कहना है किन्तु इन्होंने भी तत्त्वको कुछ भी नहीं जाना। ( एक अन्य शैव मतवादी अन्य देवोंकी मान्यताको तो दूषित समझता है किन्तु वह गगनको सदा शिव कहता है ) किन्तु जो निष्कल है / वह फैलता और सिकुड़ता कैसे है ? निष्कल होता हुआ परमाणुओंका संचय कैसे करता है ? निष्कल शरीर कैसे धारण करता और त्यागता है ? निष्कल दूसरेके कार्यको चिन्ता कैसे करता है ? भला बतलाइए जो निष्कल है वह त्रिभुवनको कैसे उत्पन्न करता, धारण करता, व संहार करता है ? निष्कल स्वयं कैसे पढ़ेगा व किसी अन्यको कैसे पढ़ाएगा? जो निष्कल है वह मोक्षका मार्ग कैसे दिखलाएगा? निष्कल अष्ट प्रकृति रूप अंगोंको कैसे धारण करता है ? तथा दूसरोंको कैसे प्रेरित करता व रोकता है ? निष्कलमें किसी प्रकारका परिवर्तन कैसे होगा तथा निष्कलका अंश कैसे नृत्य व गान करेगा? जो निष्कल है वह तो निश्चल व ज्ञान-शरीरी होता हुआ स्वभावतः सिद्ध रूपसे रहता है। न वह स्वयं मरता और न उत्पन्न होता। वह इस संसारकी यात्रामें अपनेको क्यों डालेगा?॥६॥ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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