________________ 22 णायकुमारचरिउ समस्त भाषाओं के एक ही आदि स्रोतपर पहुँचाने में तो सफल नहीं हुआ, तथापि इसके द्वारा यह सुनिश्चित हो गया कि वर्तमानमें प्रचलित समस्त भाषाओंके अपने-अपने परिवार थे; जैसे योरोपीय परिवार, द्राविड परिवार, सामी परिवार, हामीपरिवार, चीनी, तिब्बती व मंगोलो परिवार आदि / इन परिवारों की भाषाओं में कुछ ऐसी मौलिक विलक्षणताएं हैं, जिनके एक हो स्रोतसे विकसित होनेकी सम्भावना प्रमाणित नहीं होती। यहाँ हमारा प्रयोजन विशेषरूपसे भारोपीय भाषा परिवारसे है जो अपनी शाखा-प्रशाखाओं, उनके बोलनेवालों को संख्या, उनका संसारमें विस्तार एवं साहित्यिक विकास और उत्कर्षको दृष्टि से सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण है / भाषा-शास्त्रियोंकी नवीनतम स्थापना यह है कि आजकल जितनी भाषाएं योरोप, ईरान और उत्तर भारतमें प्रचलित हैं उन सबका विकास उस एक भारोपीय भाषासे हुआ है जो अनुमानतः आजसे लगभग पांच-सात सहस्र वर्ष पूर्व यूराल पर्वतको तराईके निवासियोंमें प्रचलित थी। उनको संख्या वृद्धिसे उत्पन्न जीवनके साधनोंकी खोजको आवश्यकताके कारण वे वहांसे चारों ओर फैलने लगे। उनका एक दल यूरोपके नाना देश-विदेशोंमें फैला एवं काल व परिस्थितियोंके अनुसार अनिवार्य परिवर्तनोंके द्वारा उनकी बोलियोंने बदलतेबदलते योरोपको विविध भाषाओं जैसे ग्रोक, लैटिन आदि और फिर अंगरेजो, जरमन, फ्रेंच, रूसी आदिका रूप धारण किया। एक दूसरा दल पूर्वको ओर बढ़ा और उसने ईरान में पहुंचकर हिन्द-ईरानी परिवारको भाषाओंको जन्म दिया जिससे प्राचीन फारसो तथा वैदिक भाषाको उत्पत्ति हुई। इस प्रकार भारतको भूमिपर हमें सर्वप्राचोन साहित्यिक भाषा ऋग्वेद आदि वैदिक रचनाओंमें प्राप्त होती है, जिसे हम आदिकालोन हिन्द-आर्य भाषा कहते हैं। इस प्रकार भारोपीय भाषा व हिन्द-ईरानी भाषाके अनुक्रमसे उत्पन्न हुई इस हिन्द-आर्य भाषाके विकासका काल ई. पू. 2000 अनुमानित किया जाता है। वैदिक भाषाके क्रमशः संस्कार होते-होते वह व्याकरण शुद्ध संस्कृत भाषा विकसित हुई, जो समस्त भारतमें विद्वानोंके बीच विचार-विनिमयका माध्यम बनी और उसमें वह उत्कृष्ट साहित्य निर्मित हुआ, जिसको आज भी भारतमें ही नहीं, किन्तु समस्त संसारको विद्वत्-समाजमें भारी प्रतिष्ठा है / हमें यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आदिमें तो समाजमें प्रचलित बोली एक ही रूप होती है / किन्तु जहाँ उसमें विद्वानोंके द्वारा संस्कार किये जाने लगते हैं और वह व्याकरणादिके नियमोंसे निबद्ध होने लगती है तहां उसका स्वरूप जन-साधारणको बोलोसे भिन्न होता जाता है। यही बोली और भाषाके बीचका अन्तर है। और इन्हें ही सामान्यतः प्राकृत और संस्कृत भाषाएं कहा जाता है। ये दोनों भाषाएं कुछ कालतक एक साथ चलती हैं / प्राकृत बोलनेवालोंको संस्कृत भाषा भी समझमें आती है, और संस्कृतवाले तो अपनी मातृभाषा प्राकृतको समझते ही हैं। किन्तु आगे इनका विकासक्रम बदल जाता है / संस्कृत क्रमशः व्याकरणके नियमों और शिष्ट प्रयोगों तथा साहित्यिक प्रवृत्तियोंसे जकड़ जाती है, जबकि प्राकृत प्रकृतिके नियमानुसार सुबोधता व सरल उच्चारणको प्रवृत्तियों द्वारा बदलती है / कबीरदासने ठोक ही कहा है "संसकिरत है कूप जल भासा बहता नीर / " इस प्रकार स्वच्छन्द-विहारिणो जनवाणो अर्थात् प्राकृत तथा अनुशासनसे अवरुद्ध संस्कृतके बीच उत्तरोत्तर भेद उत्पन्न होनेसे वे एक-दूसरेके बहुत दूर पड़ जातो हैं और संस्कृतको रचनाएँ प्राकृत जनोंके लिए दुर्बोध हो जाती हैं। तब जो समाज हितैषी विद्वान् और सन्त अपने साहित्य द्वारा जनताको सम्बोधित करना चाहते हैं वे संस्कृतको छोड़ लोकप्रिय प्राकृतोंमें ग्रन्य-रचना करने लगते हैं। और इस प्रकार संस्कृत और प्राकृत साहित्य एक-दूसरेसे भिन्न प्रकट होने लगते हैं। कालिदासादि महाकवियों द्वारा रचित नाटक उस परिस्थितिके प्रमाण हैं जब स्त्रियाँ, बालक व सेवक-सेविकाएं तथा धन्धा-रोजगार करनेवाले अशिक्षित व्यक्ति अपनी प्राकृत बोली बोलते हैं जबकि राजा, धनो व विशेष विद्वान् सुशिक्षित व्यक्ति संस्कृत बोलते हैं और उनके परस्पर वार्तालापमें कोई बाधा नहीं पड़ती। भारतीय आर्यभाषाका यह बिखराव वैदिक कालमें ही प्रारम्भ हो गया था। ऋग्वेदके वाक्सूक्त तथा अथर्ववेदके पृथिवीसूक्तमें स्पष्ट कहा गया है कि लोग P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust