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________________ सन्धि 4 1. मथुराके राजभवनका वृत्तान्त उस श्रेष्ठ हाथी और उस घोड़ेको वशमें करके पुरवासी जनसमूहके देखते-देखते उस सुपुत्र नागकुमारने अपने प्रसन्न मुख पिताके चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें समर्पित किया। राजाने कहा-इस घोड़े और हाथीको तुम्हीं ले लो। हे पुत्र, मैंने तुम्हारा काम देख लिया / मेरे महलमें जो-जो कुछ अच्छी वस्तुएँ हैं वे सभी तुम्हें अलंकृत करें। तब उस श्रेष्ठ तुरंग और भद्र हाथीको लेकर नागकुमार अपने मंत्रियों सहित अपने निवासको गया। वहां जब वह राज्यश्रीका उपभोग करते हुए रहता था तभी एक दूसरी घटना घटी / उत्तर मथुरामें जयवर्म नामका राजा था जिसकी सुन्दर स्निग्ध शरीरवाली जयवती नामकी प्रिया थी। उसके काल और महाकाल नामके दो पुत्र थे। और दोनों ही विज्ञानयुक्त एवं संग्राममें प्रवीण थे। उनका वक्षस्थल नगरकोटके कपाट सदृश विशाल था। भुजाएं अर्गलाके समान सुदृढ़ और आँखें ताम्रवर्ण थीं। वे अपने प्रतिपक्षी करोड़ों योद्धाओंके यमराज थे, तथा शत्रुबलरूपी जलको मन्थन करनेवाले महान् बलशाली थे। अपने कुलके वे धवल धुरंधर थे और विजयलक्ष्मीके अभीष्ट थे, जैसे मानो दो काल हों या दो सिंह, मानो दो सूर्य हों या दो चन्द्र, दो कल्पवृक्ष हों या दो इन्द्र / उन दोनों भ्राताओंमेंसे एकके कपालपर एक नेत्र दिखाई देता था तथा दूसरा अपने सौन्दर्यमें मानो कामदेव ही था। एक बार उस नगरके उपवनमें एक मुनिराज आकर ठहरे / वे निस्पृह, नग्न, पांच प्रकारके आचार मार्गको दर्शानेवाले तपरूपी लक्ष्मीसे भूषित शरीर, संयमधारी तथा पर्वत व धरणीतलके समान धीर थे। देव, मनुष्य और नाग परम आनन्दसे जय दुन्दुभीकी ध्वनि द्वारा उनका अभिनन्दन कर रहे थे। ऐसे उन ऋषिकी राजाने शुद्ध चित्तयुक्त पुत्र कलत्रों सहित जाकर वन्दना की // 1 // 2. मुनि द्वारा गृहस्थ धर्मका उपदेश उसी समय मुनिराजके मुखरूपी कन्दरासे धर्मरूपी अमृतको धारा बह निकली जो अति सघन पाप रूपी पंकका प्रक्षालनकर निर्मल गुणोंको प्रकट करने वाली थी। - वे परमार्थका भाषण करनेवाले गुणरूपी रत्नोंकी राशि मुनिवरेन्द्र गह-धर्मका कथन करने लगे / गृहधर्म वही नरश्रेष्ठ धारण करता है जो नित्य हो त्रस्त जोवोंके प्रति दया करनेमें तत्पर रहता है / जो विनयसे अपना मस्तक नीचा रखता है और सत्य एवं मधुर वचन बोलता है, वही गृहस्थ धर्मका धारी है। गृहधर्म धारण वही करता है, जो निष्पाप रूपसे दूसरेके द्रव्यके अपहरणसे अपना हाथ खींचे रहता है / वही बुद्धिमान वीर पुरुष गृहधर्मावलम्बी है जो परायी स्त्रीसे पराङ् P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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