________________ श्रीमरुतुमरिविरचित श्रीनाभाकराजाचरितम् प्रोचे मुनिरथोऽयोध्या : प्राप्तकेवलिनो मुखात् // मुनिपार्चे निविष्टस्य,क्ष्मापते: पुरतोऽन्यदा॥ देवद्रव्यविनाशस्या-ऽधिकारे प्रौढपर्षदि॥१६१॥ प्रदर्शयन् खरं कश्चित्, कुम्भकारो जगाविति // 171 // त्वत्पूर्वभवसम्बन्धं, त्वबोधं चाऽथ भाविनम् // राजन्नित्यं वहन् वारि, स्वयं शैले चटत्यसौ॥ ज्ञात्वाउंगत्य वनेऽत्नाहं, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् // 162 // को हेतुरिति भूपोऽपि, श्रुत्वा पप्रच्छ तं मुनिम् // 172 / / को मे प्राग्भवसम्बन्ध, इति पृष्टे नृपेण सः॥ स एव केवली तावत्, तत्रागात् मुनि * भूपती॥ प्राचीकथन्मुनि ग-गोष्टिकाख्यानमादितः॥१६॥ तेन कुम्भकृता युक्तौ, नन्तुं तमथ जग्मतुः // 173 // प्राज्यं राज्यं शुध्ददानात् दयातो रूपमुत्तमम् // खरस्वरूपं भूपेन, पृष्टः केवल्यथाऽखिलम् // दुष्टं कुष्ठं भवद्देहेऽभवदेवविलेपनात् // 16 // समुद्रसिंहवृत्तान्त-मुक्त्वा मूलात् पुनर्जगौ॥१७॥ श्रुत्वेति भूपतिर्भीत: प्रणिपत्य यते: पदौ॥ सिंहजीव: सको भुक्त्वा, संसारे घोरवेदनाः / / . पुरेऽत्रैवाल्पकर्मत्वात्, षट्कृत्वोऽथ खरोऽजनि // 175 // बभाषेऽस्मान्महापापात्, मुने! मोचय मोचय // 16 // भवे सप्तमके भूत्वा, त्रीन्द्रियोऽसौ तत: पुनः॥ . परमेष्ठिमहामन्त्रं / नृपायोपादिशन्मुनिः॥ . खरोऽवशिष्टकर्मत्वात्, षट्कृत्वोऽत्र पुरेऽभवत् // 176 // तस्याऽथ च प्रभावं च, विधिं च स्मरणेऽखिलम् // 166 // सहस्त्रा द्वादशाऽनेन, देवद्रव्यं विनाशितम् // देवस्वपातकाद् देव-प्रासादस्य विधापनात् // . ...! तत्कर्मशेषस्तावत्, कृत्वाऽसावीदृशोऽजनि॥१७७॥ मुच्यते जन्तुरित्याख्यत्, प्रायश्चित्तं च शास्त्रवित् // 167 // प्रतिजन्माऽद्रिशृङ्गेऽस्मिन् कर्मकार्यकृते सदा।। अथ राजा पुरे स्वीये, स्थापयित्वाऽऽग्रहाद् यतिम् // चटनाभ्यासतोऽत्रादौ स्वयमेव चटत्यसौ॥१७८॥ . यथोपदेशमारेभे, महामन्त्रस्मृतिं ततः / / 168 // श्रुत्वेति भूपतिस्तस्य, सारार्थ कृपया ददौ॥ . षभिर्मासैर्नृपस्याऽभूत, काय: काञ्चनकान्तरुक्॥ शिक्षा कुम्भकृते सोऽपि, यत्नात्तं पर्यपालयत् // 179 // ' शीर्षेऽथ चित्रकूटस्य प्रासादं परमेशितुः॥ अथासौ भद्रकस्वान्तो, मृत्वा ग्रामे मुरस्थले॥ सुपर्वपर्वतोत्तुङ्गशृङ्गं प्रारभयन्नृपः॥१७०॥ . . . . ' ग्रामणीर्भानुनामाऽभूद्, राज्ञा निर्वासितोऽन्यदा // 18 //